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पिंडैपणा
। [३३+३४] और यदि कोई साधु भिन्न २ प्रकारका अन्नपान प्राप्त करके
उसमें से सुन्दर २ भोजन स्वयं मार्ग में ही भोगकर अवशिष्ट ठंडे एवं नीरस आहार को उपाश्रयमें लावे जिससे अन्य साधु यह जाने कि "यह बडा ही आत्मार्थी तथा रूत वृत्ति से
रहनेवाला सन्तोपी साधु है जो ऐसा रुखासुखा भोजन करता है" [३१] इस प्रकार दंभसे पूजा, कीर्ति, मान तथा सन्मान पाने की
इच्छा करता है वह अतिपाप करता है और मायारूपी शल्यको इकट्ठा करता है।
टिप्पणी-माया एवं दंभ ये दोनों ही एकांत अनर्थ के मूल कारण हैं। इनका जो कोई सेवन करता है वह उस अधर्म का संचय करता है कि जिससे वह जीवात्मा उच्च स्थितिमें होने पर भी नीच गतिमें गमन करता है। [३६] जिसके त्यागमें केवली (ज्ञानी) पुरुषों की सादी है ऐसा संयमी
भिनु अपने संयम रूपी निर्मल यशका रक्षण करते हुए, द्राक्ष के
आसव, महुए के रस अथवा अन्य किसी भी प्रकार के मादक रस को न पिये।
टिप्पणी-मितु किसी भी मादक पदार्थ का सेवन न करे क्योंकि मादक वस्तु के सेवन से आत्मजागृति का नाश होता है। [३०] "मुझे यहां कोई देख तो रहा ही नहीं है। ऐसा मानकर जो
कोई भितु एकांत में चोरी से (लुक छिपकर) उक्त प्रकारका मादक रस पीता है उस के मायाचार तथा दोपों को तो
देखो । मैं उनका वर्णन करता हूं तुम उसे सुनो।। [३८] ऐसे साधु की आसक्ति बढ़ जाती है और इस के कारण
उस के छलकपट तथा असत्यादि दोप भी बढ़ जाते हैं जिस से वह इस लोक में अपकीर्ति को तथा परलोक में अशांति को