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::विविक्त चर्या
एक.मास तक अथवा चौमासा भर जिस स्थानमें :साधु रहा हो उस से दुगुना समय दूसरे स्थानों में व्यतीत करने के बाद ही उतनी अवधि के लिये फिर उस स्थानमें ठहर सकता है-ऐसी सूत्र की आशा है (देखो
आचारांग सूत्र) [१२] और भित्रु रात्रिके प्रथम अथवा अंतिम प्रहर में अपनी
आत्मा की अपने ही द्वारा आलोचना (निरीक्षण) करे कि आज मने क्या २ काम किये? क्या २ करना मुझे अभी बाकी है ? मैंने शक्य होने पर भी किसबातका पालन नहीं किया? दूसरे लोग मुझे कैसा मानते हैं (उच्च या नीच)? मेरी आत्मा दोपपान तो नहीं है ? मैं अपनी किन २ भूलों को अभी तक नहीं छोड सका? इत्यादि खूब ही संभालपूर्वक (सूक्ष्म दोप को भी छोडे विना) विचारकर भविष्यमें पुनः
संयम में वैसे दोप न लगाने का प्रयत्न करे। [१३] धैर्यवान् भिक्षु कदाचित् भूलसे भी किसी कार्य में मन, वचन
और काय संबंधी दोप कर बैठे तो उसी समय, लगाम खींचते ही जैसे उत्तम घोढा सुमार्ग पर आजाता है वैसे ही
अपने मनको वशमें रखकर सुमार्ग पर लगावे । [१४] धैर्यवान एवं जितेन्द्रिय जो साधु सदैव उपर्युक्त प्रकार का
अपना पाचरण रखते हैं उसी को ज्ञानिजन नरपुंगव (मनुष्यों में श्रेष्ठ) कहते हैं और वही वस्तुतः सच्चे संयम पूर्वक जीवन बिताता है।
टिप्पणी-योडे समय के लिये संयम : निभा लेना आसान बात है। जहां तक कठिनता, आपत्ति या ब्याकुलता नहीं होती तबतक अपनी वृत्ति को सुरक्षित रखना सरल है किंतु संकटों की अपार झडी वरसने पर भी अपने मन, वचन और कायकों अलग बनाये रखना बढी ही कठिन बात हैं।