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दंशकालिक सूत्र 'यो विचारे) जीवात्मा की भोगपिपासा भी क्षणिक है, वह • केवल थोडे समय तक ही रहती हैं फिर भी बाद कदाचित
वह ऐसी बलवती हुई जो इस जीवन के अन्ततक भी तृत
न होगी तो मेरी जिंदगी के अन्तमें तो यह जरूर ही.. । चली जायगी' इत्यादि प्रकार के विचार कर के खयम के - प्रति होनेवाले वैराग्य को साधक इस प्रकार रोके।
टिपणी-प्राण जाय तो भले ही चले जाय परन्तु मेरी संयमीः जीगर तो वहीं जाना चाहिये । इस जीवंव के चलें जाने के बाद पुराने के. . बदले नया जीवन मिल नायगा किंतु आध्यात्मिक मृत्यु होने के बाद उसकी पुन:प्राप्ति अशक्य है"-ऐसी भावना साधक सदैव चिन्तन करता हैं। [M] जब ऐसे साधुको आत्मा उपर्युक्त विचारों का मनन करते
२ इतनी निश्चित हो जाय कि वह संयम त्यागको अपेक्षा अपना शरीर त्याग करना अधिक पसंद करे तब वायु के प्रचंड मौके जिस तरह सुमेरु पर्वत को नहीं हिला सकते
उसी तरह इन्द्रियों के विषय उसे सुदढ साधक को डोलाव" मान कर सकेंगे। . NE] ऊपर लिखी सब बातों को जानकर बुद्धिमान साधक उनमें से ... अपनी प्रात्मशक्ति तथा उसके वोग्य मिन २ प्रकार के . . उपायों को विवेक-पूर्वक विचार कर तथा उनमें से (. अपनी
योग्यतानुसार) पालन करके मन, वचन और काया इन ' तीनों योगोंके यथार्थ संयम का पालनकर जिनेश्वर देवों के
वचनों पर पूर्ण रीतिसे स्थिर रहे।
टिप्पणी-त्यागीका पतित जीवन दुधारी तलवार जैसा है जिसका पांव उपर नीचे दोनों ओर होता है । सोढ़ी पर चढ़ा हुआ मनुष्य जमीन पर • सै? मनुष्यों की अपेक्षा बहुत ऊंचा दिखाई देता हों किन्तु जब वह वहां