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रतिवाक्य चूलिका
उसी तरह संयमधर्मरूपी आत्मा के निकलबाने पर बर साथक निश्चेत जैसा होजाता है इसलिये उसकी हंसी मस्करी होनचरित्र गृहस्थ भी करने लंगते हैं। [१३] धर्म से पसित, अधर्मसेवी और अपने अतनिवमों से प्रष्ट
साधु की. इस लोक में भी चरित्रकी इति; अधर्म, अपयश तथा नीचे, मनुष्यों की निंदा आदि अनेक हानियां होती है
और हीनजीवन के अंतमें उसे परलोकमें भी अधर्मके फल . स्वरूप अधम योनि मिलती है । [१४] जो. कोई साधक वेदरकार (दुष्ट) चित्तके वेग के वश होकर
भोगों को भोगनेके लिये तरह २ के असंयमों का पाचरण,कर
ऐसी अकल्पनीय दुःखद योनिमें गमन करता है कि उस - साधक को फिर दुवारा ऐसे उच्च सद्वोधकी प्राप्ति होना सुलभ
नहीं होता। [१२] क्लेश तथा अनन्त दुःख, परंपरा में दुःखी होते हुए इन विचारे
नारकी जीवोंकी पल्योपम तथा सागरोपम लंबी आयुष्यों तक निरंतर मिलनेवाला अनन्त दुःख कहां और इस संयमी जीवन में
कभी कभी आया हुआ थोडा अाकस्मिक दुःख कहां? इन दोनों " में दो महानं अंन्तर है तो फिर ऐसा उद्विग्न साधक
ऐसा सोचे " अरे! मेरा यह क्षणिक मानसिक दुःख किस ' विसात में है "और ऐसा सोचकर समभावपूर्वक उस कष्टको सही " टिप्पणी-मल्योपम, समय का एक बहुत बडा परिमाण है । ‘सागरोपमको परिमाण तो उससे भी बहुत अधिक बडा है। ... [१६] (दुःखके कारण संयम छोडने . की इच्छा हो तो वह नों
विचारे) मेरा यह दुःख. बहुत समय तक नहीं टिकेगा। (यदि भोगकी इच्छासे संयम छोडने की इच्छा हो तो वह