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इस तरह प्रमाण की कसौटी पर कसने से पाश्चात्य विद्वानों के इनमतों में कुछ न कुछ दोष दृष्टिगत हुए विना नहीं रहते । विचार करने पर मालूम होता है कि पूर्वाचार्योंने इसी आध्यात्मिक अर्थ को प्रधानता देकर इन ग्रन्थों को 'मूल सूत्र' कहा है क्योंकि उनकी दृष्टि में इन दर्शन के सिद्धांत एवं जैनजीवन का रहस्य संक्षेप में यथार्थ . रीति से समझने के लिये ये मूल ग्रन्थ ही सबसे उत्तम साधन है । इन मूल ग्रन्थों में जैन सिद्धांत एवं जीवन का वर्णन अनेक उदाहरण देकर इतनी सुन्दरता से किया गया है कि इन ग्रन्थों को पढकर अपरिचित व्यक्ति भी जैन धर्म और जैन धर्मी की पहिचान कर सकता है । इसीलिये इन्हें 'मूलसत्र' कहा जाना विशेष सुसंगत जान पडता है ।
स्वयं देवैकालिक भी हमें इसी अर्थको स्वीकार करने को प्रेरणा करता है और इसी मान्यता को श्री हेमचंद्राचार्य भी पुष्ट करते हैं | उनके मत के विषय में डॉक्टर शूविंग अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं:
"From this mixture of contents it can easily be understood why tradition, as represented in Hemchandra's Parisista pervan 5, 81 H. in accordance with earlier models should ascribe the orijin of the Dasaveyaliya Sutt to an intention to Condense the essence of the sacred lore into an anthology."
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