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दशवकालिक सूत्र
नहीं होता है। परंतु यदि कदाचित् शरीर को शुध्धि हो तो जैन सूत्रोंने त्यागो को सबसे पहिले उस अशुध्धि को दूर करने की छूट दी है और जब तक शुध्धि न हो जाय तब तक स्वाध्यायादि कोई भी धार्मिक क्रिया न करने का खास भारपूर्वक आग्रह किया है। (विशेष विस्तृत वर्णन के लिये छेद सूत्र को देखो)
इस के ऊपर से मान करना किस घष्टिते, किस के लिये, और कित स्थिति त्याज्य है उसका सुश पुरुष को फिवेकपूर्वक विचार करना उचित है। सूत्रकारने उसका ६६ वी गाथामें समाधान भी किया है। [१४] (अहारहवां स्थान ) संयमी पुरुप मान, सुगंधी चन्दन, लोध्र
कुंकुम, पद्मकेशर आदि सुगंधित पदार्थों को कभी भी अपने
शरीर पर न लगावे और न उनका मर्दन नादि ही करे। [६] प्रमाणोपेतवस्तवाले (यथाविधि प्रमाणपूर्वक वस्त्र रखनेवाले)
स्थविरकल्पी अथवानग्न जिनकल्पी अवस्थावाले, द्रव्य से तथा भाव से मुंडित (केशलोच करनेवाले ), दीर्घ रोम तथा नख रखनेवाले तथा मैथुन से सर्वथा विरक्त ऐसे संयमी के लिये विभूषा सजावट या शृंगार की क्या जरूरत है ?
टिप्पणी-सारांश यह है कि देहभान से सर्वधा दूर और सांसारिक पदार्थों के मोह से विरक्त त्यागी को अपने शरीर को सजाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि शरीर शृंगार भिक्षु के लिये भूषण नहीं किन्तु एक बडा दूषण है। [६६] (यदि साधु अपने शरीर की सजावट करे तो) विभूषा के
निमित्त से मितु ऐसे चीकने कर्मों का बंध करता है कि जिनके कारण वह दुस्तर भयंकर संसाररूपी सागर में गिरता है।
टिप्पणी-स्नान हो, चन्दनविलेपन हो अथवा वस हो कुछ भी किया क्यों न हो, किन्तु जब वह शरीरविभूषा के निमित्त की या पहनी जाती