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दशकालिक सूत्र
नहीं है और तो क्या संयमी प्राप्त साधनों को भी स्वयं तणवत् छोड देता है । इसी के कारण वह अपने संयम द्वारा विश्वके अनेक प्राणियोंका आशीदि गुप्त रीति से प्राप्त करता रहता है। इस परसे आसानीसे यह वात समझमें आजायगी कि त्यागोजीवन गृहस्थ जीवन पर योझा नहीं है परन्तु गृहस्थजीवन को मानसिक बीममें से बाहर निकालकर हलका बनाने का एक निमित्त है और ऐसा जोवन ही आदर्श त्यागोजीवन है।
परन्तु जब त्यागी जीवन गृहस्थजोवन पर बोझा हो जाता है तब कह उपरोक्त दोनों प्रकारों के जीवनों से निकृष्ट अर्थात् भिखारी-जीवन हो जाता है। [१] जो साधु ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के उत्तम वचनों की तरफ
रुचि रखते हुए सूक्ष्म तथा स्थूल इन दोनों प्रकारों के पड़ जीवनिकायों (प्रत्येक प्राणिसमूह) को अपनी यात्माके समान मानता है। पांच महाव्रतों का धारक होता है और पांच प्रकार के पापद्वारों (मिथ्यान, अवत, कपाय, प्रमाद तथा अशुभ योग-व्यापार ) से रहित होता है वही आदर्श साधु है।
टिप्पणी-जिसतरह सुख, शांति, और आनंद हमें प्रिय है उसी तरह जगतके छोटे से छोटे जीव से लगाकर दडे से बडे जीवको भी ये प्रिय हैं ऐसा जानकर अपने आचरण को दूसरों के लिये सुखकर बनाना इसी वृत्तिको
आत्मवत्-वृत्ति कहते हैं। [६] जो ज्ञानी साधुः क्रोध, मान, माया और लोभ का सदैव वमन
करता रहता है, ज्ञानी पुरुषों के वचनों में अपने चित्त को स्थिर लगाये रहता है, और सोना, चांदी, इत्यादि धनको छोड देता
है वही श्रादर्श साधु है। . [७] जो मूढता को छोडकर अपनी दृष्टि को शुद्ध (सम्यग्दृष्टि)
रखता है। मन, वचन और काय का संयम रखता है। ज्ञान,