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दशकालिक स्त्र
[२(नंदी के प्रवाह में तैरते हुए काष्ठ की तरह) संसार के प्रवाह
में अनंत प्राणी बह रहे हैं। उस प्रवाह से बुट. जाने के . इच्छुक मोक्षार्थी साधक को संसारी जीवों के प्रवाह से उल्टी:
दिशामें (प्रवृत्ति) में अपनी आत्मा को लगानी चाहिये। "टिप्पणी-मनुष्य जीवन, · योग्य समय तथा साधन मिलने पर भी बहुत से मनुष्यों को भौतिक जीवन के सिवाय अन्य किती जीवन का रंचमात्र भी ख्याल नहीं होता । वे केवल लौर के फकीर बने रहते है
और उनका जीवन क्रम, जैसा होता आया है उसी दरें पर चलता जाता है । उनसे यदि कोई अंपायों जागृत होता है, तो वह लोक प्रवाह में न डूंदकर प्रत्येक क्रियामें विवेक करने लगता है और वह अपने लिये एक नया ही मार्ग बनाता है। . [२] जंगत के विचारे पामर जीव सुखकी तलाशमें संसार के प्रवाह
मैं बहते जारहे हैं वहां विचक्षण साधुओं की मन, वचन और काया की एकवाक्यता (शुभ न्यापार) ही उस प्रवाह के विरुद्ध जाती है । सारांश यह है कि श्रेयार्थी को अपना मार्ग
अन्य जीवों की अपेक्षा अलंग ही बनाना चाहिये। - टिप्पणी-सामान्य प्रवाह के विरुद्ध अफ्ना मार्ग नियत करते समय सौधर्क को बडी सावचेती रखनी चाहिये । उसको अपना जुदा मार्ग बनाते देखकर इतर मनुष्यों की कडी नजर उसपर पडती है इसीलिये कहा है कि 'हरिप्राप्ति का मार्ग किसी · विरले शुरवीर का ही है, उस मार्ग पर कायर नहीं चल सकते ! । किन्तु सच्चे साधक का भात्मवल उन कोपरष्टियों से. उसे बचा लेता है और वह अपने मार्ग पर निष्कंटक, चल निकलता है। [४] सच्चे सुखके इच्छुक साधक को लोक प्रवाह के विरुद्ध जाने में
कौन सा बल बढाना चाहिये उसका निर्देश करते हैं) एकतो 1. प्रथम उस सांधक को सदाचार में अपना मन लगाना चाहिये