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दशकालिक सूत्र क्योंकि समस्त प्रकारों के त्याग के मूल ये हैं। इनके सिवाय १३ गुण और हैं और ये सव इन मूलगुलों को परिपुष्ट बनाते हैं। इसलिये भिक्षुको चाहिये कि वह अपने मूलगुणों की रक्षामें सदैव जागृत रहे।
रात्रिभोजन शारीरिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टियों से त्याज्य है। अहिंसा की संपूर्ण आराधना के लिये ६ प्रकार के जीवों का शान करने के समान हो उनको रक्षापूर्ण प्राचार रखा जरूरी है। और इतनी ही आवश्यकता शरीर सौंदर्य तथा गृहत्यसंसर्ग इत्यादि के त्याग की है।
पतन के निमित्तों से दूर रहकर मात्र साधुजोवन की साधना में तल्लीन रहने के लिये ही, साधु के नियमों का विधान हुआ है। कोई भी साधक इन निवमों को पराधीनता का चिन्ह समझ कर छोड़ देने की भूल न करे
और न इनकी तरफ वेदरकार ही देने क्योंकि नियमों की पराधीनता साधक जन के लिये उपयोगी ही नहीं किंतु कार्यसाधक भी है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'धर्मार्थकाम' नामक छठा अध्ययन समाप्त हुआ।