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दशवेकालिक सूत्र
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[१४] जिस प्रकार रात्रीके व्यतीत होने पर प्रकाशमान सूर्य संपूर्ण भारतक्षेत्रमें प्रकाश करता हे इसी प्रकार आचार्यदेव श्रपने ज्ञान, चारित्र तथा बुद्धियुक्त उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थोंको प्रकाशित करते हैं और वे देवों में इन्द्र के समान साधुनों में शोभित होते हैं।
[१२] जिस प्रकार ज्योत्स्ना (चंदनी) से युक्त शरदपूणिमाका चंद्र भी ग्रह, नक्षत्र, तथा तारागणों के परिवारसे युक्त, बादलोंसे रहित नीलाकाशमें अत्यंत मनोहरतासे प्रकाशित होता है उसी तरह गणको धारण करने वाले श्राचार्य भी सत्यधर्मरूपी निर्मल श्राकाशर्मे अपने साधुगणके परिवार सहित शोभित होते हैं 1
टिप्पणी- यहां 'गण' शब्दका प्रयोग साधु गणमें महत्ता बतानेके लिये केवल आचार्य के लिये प्रयुक्त हुआ है ।
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[१६] सद्धर्मका इच्छुक और उनके द्वारा अनुत्तर ( सर्वश्रेष्ठ ) सुखकी प्राप्तिका इच्छुक भिक्षु, ज्ञान, दर्शन तथा शुद्ध चारित्र के महाभंडारस्वरूप शांति, शील तथा बुद्धिसे युक्त समाधिवंत श्राचार्य महपियोंको अपनी विनय एवं भक्तिसे प्रसन्न कर लेता है और उनकी कृपा प्राप्त करता है ।
[१७] बुद्धिमान साधक उपर्युक्त सुभाषितोंको सुनकर श्रप्रमत्त होकर अपने श्राचार्यदेवकी सेवा करता है और उनके द्वारा सज्ज्ञान, सच्चारित्र इत्यादि अनेक गुणोंकी आराधना कर उत्तम सिद्धगतिको प्राप्त होता है ।
टिप्पणी- ब्रह्मचर्य, संयम, गुरुभक्ति, विवेक, मैत्री तथा समभाव ये छ सद्गुण प्रत्येक मोक्षार्थी श्रमणके सहचर हैं क्योकि उन्नतिकी सीढी के ये ही ढंढे हैं इस बातको मुक्तिका अभिलाषी साधक कभी न भूले ।
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