Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[30] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन गये। जैन समाज में जब वादियों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई तब शास्त्र विशारदता के कारण वाचकों को 'वादी' कहा होगा और कालान्तर में वादी वाचक का ही पर्यायवाची बन गया। आचार्य सिद्धसेन को शास्त्र विशारद होने के कारण दिवाकर की पदवी दी गई, अतः वाचक का पर्यायवाची दिवाकर भी है। आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग था, अत: उनके पश्चात् के लेखकों के लिए वाचनाचार्य के स्थान पर क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग किया गया है। 99
आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आगमिक परम्परा के समर्थक थे। आपकी समग्र रचनाएं तथा रचना की प्रत्येक पंक्ति आगम आम्नाय की परिपोषक है। आपने आगम पर दर्शन को प्रतिष्ठित किया। आपकी चिन्तन विधा मौलिक थी। आपने प्रत्येक प्रमेय के साथ अनेकान्त और नय को घटित किया है। परोक्ष की श्रेणी में आये हुए इन्द्रिय प्रत्यक्ष को संव्यवहार प्रत्यक्ष की संज्ञा सर्वप्रथम आपने ही दी है। जिनभद्रगणि का काल
आचार्य हरिभद्र आदि के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि आवश्यक नियुक्ति की प्रथम टीका के रूप में किसी भाष्य की रचना हुई थी। अतः सम्भवतः आचार्य जिनभद्रगणि के भाष्य को अलग दर्शाने के लिए उसे मूल-भाष्य नाम दे दिया हो। लेकिन यह निश्चित है कि मूल-भाष्य के बाद जिनभद्रगणि ने आवश्यक नियुक्ति के सामायिक नामक प्रथम अध्ययन के आधार पर पद्य रूप जो प्राकृत टीका लिखी वह विशेषावश्यकभाष्य के नाम से प्रसिद्ध हुई है। अतः आचार्य जिनभद्र का समय नियुक्ति कर्ता भद्रबाहु और मूल भाष्य के कर्ता से पहले का नहीं हो सकता है। आचार्य भद्रबाहु वि० सं० 562 के लगभग विद्यमान थे, अतः विशेषावश्यकभाष्य का समय वि० सं० 600 से पहले सम्भव नहीं है।
मुनिश्री जिनविजयजी ने जैसलमेर की विशेषावश्यकभाष्य की प्रति के अन्त में लिखित दो गाथाओं के आधार पर जिनभद्रगणि के काल का निर्णय किया है। इनकी रचना वि० सं० 666 (शक संवत् 531) में हुई।107 मुनिश्री जम्बूविजयजी ने भी इसका समर्थन किया है। यदि मुनिश्री जिनविजयजी के अनुसार विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक संवत् 531(वि. सं. 666) में लिखी गई, तो उसकी रचना का समय वि० 660 के बाद का तो हो ही नहीं सकता। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि आचार्य जिनभद्रगणि की यह अन्तिम रचना थी एवं इसकी टीका भी उनके स्वर्गवास के कारण अधूरी रह गई थी, अतः जिनभद्रगणि का समय वि० सं. 650 के पश्चात् का नहीं हो सकता है।
पं. दलसुखभाई मालवणिया मुनि जिनविजयजी के कथन से सहमत नहीं हैं। उनका अभिमत है कि विशेषावश्यकभाष्य की प्रति के अंत में लिखित दो गाथाओं में रचना विषयक किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं हुआ है। खण्डित अक्षरों को यदि हम किसी मन्दिर विशेष का नाम मान लें तो इन गाथाओं में कोई क्रियापद नहीं रहता। ऐसी स्थिति में इसकी रचना शक सं. 531 में हुई, यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते। अधिक संभव तो यही लगता है कि उस समय यह प्रति लिखकर मन्दिर को समर्पित की गई हो। चूंकि ये गाथाएं केवल जैसलमेर की प्रति में ही हैं, अन्य किसी प्राचीन प्रतियों में नहीं हैं। यदि ये गाथाएं मूलभाष्य की ही होती, तो सभी में होनी चाहिए थी। दूसरी बात यह है कि ये गाथाएं रचनाकाल सूचक हैं ऐसा माना जाये तो यह भी मानना होगा कि गाथाओं की रचना जिनभद्रगणि ने की, तो इन गाथाओं की टीकाएं भी मिलनी चाहिए। कोट्याचार्य और मलधारी हेमचन्द्र की विशेषावश्यक की
99. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 31 101. गणधरवाद प्रस्तावना पृ. 33
100. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 32 102. द्वादशारं नयचक्रम्, प्रस्तावना पृ. 74