Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
विश
वैनयिकी बुद्धि - गुरुजनों का विनय करे, तीनों योगधर ध्यान।
बुद्धि विनयजा वह लहे, अन्तिम पद निर्वाण ॥ कार्मिकी बुद्धि - जो करता जिस काम को, वह उसमें प्रवीण।
बुद्धि कर्मजा होती वह, विज्ञ जन तुम लो जान॥ पारिणामिकी बुद्धि- उम्र अनुभव ज्यों ज्यों बढे, त्यों-त्यों ज्ञान विस्तार।
बुद्धि परिणामी कहात वह, करत कार्य निस्तार ॥ नंदीसूत्र में तो अवग्रहादि चार को श्रुतनिश्रित के भेद के रूप में स्वीकार किया गया है, जबकि स्थानांग सूत्र में श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों में अवग्रहादि चार भेद बताये हैं। प्रस्तुत अध्याय में शंका समाधान करते हुए कहा है कि नंदीसूत्र में अश्रुतनिश्रित के अवग्रहादि भेदों की मुख्यता नहीं होने से उपेक्षित कर दिया गया है तथा स्थानांगसूत्र में गौण रूप से होने पर भी उनका अस्तित्व तो है ही, इसलिए बताये गए हैं।
अवग्रह के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों का मानना है कि 'यह वह है' ऐसा सामान्य विशेषात्मक ज्ञान अवग्रह रूप है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह ज्ञान तो निश्चय रूप है, जिसको स्वीकार करने पर ईहा, अपाय की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, इसलिए यह उचित नहीं है।
अवग्रह के अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह ये दो भेद हैं। इनका सर्वप्रथम उल्लेख नंदीसूत्र में प्राप्त होता है। 1. व्यंजनावग्रह - अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होना व्यंजनावग्रह है और 2. अर्थावग्रह - इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र का ज्ञान अवग्रह है।
व्यंजावग्रह के पूर्व पूज्यपाद आदि आचार्य दर्शन को स्वीकार करते हैं, जबकि जिनभद्रगणि इसका निषेध करते हैं। इस प्रकार दोनों मतों में से जिनभद्रगणि का मत अधिक पुष्ट लगता है, क्योंकि व्यंजनावग्रह में विषय और इन्द्रिय संयोग नहीं होने से इन्द्रियों का प्राप्य-अप्राप्यकारित्व के साथ संबन्ध नहीं रहता है। अतः व्यंजनावग्रह के चार भेदों की संगति के लिए जो प्राप्यकारी का तर्क दिया है, वह संगत नहीं रहता है। लेकिन जिनभद्रगणि का मत स्वीकार करने से यह विसंगति नहीं रहती है। जिनभद्रगणि ने विस्तार से उल्लेख करते हुए व्यंजनावग्रह को ज्ञान रूप सिद्ध किया है। व्यंजनावग्रह का विषय इन्द्रिय और इन्द्रिय विषय का जो परस्पर संपर्क होना है।
व्यंजनावग्रह के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए पुरुष और मल्लक का दृष्टांत दिया गया है। जिनभद्रगणि ने अर्थावग्रह के सम्बन्ध में प्राप्त चार मतान्तरों (1. अवग्रह में विशेष ग्रहण होता है 2. परिचित को प्रथम समय में ही विशेष ज्ञान होता है 3. अर्थावग्रह आलोचन पूर्वक होता है 4. अर्थावग्रह एक समय का नहीं हो सकता है) का उल्लेख करते हुए युक्तियुक्त समाधान किया है। बहु, बहुविध आदि बारह भेद एक समय वाले अवग्रह में घटित नहीं होते हैं, इसके लिए जिनभद्रगणि ने सांव्यवहारिक अवग्रह की कल्पना करके इन भेदों का घटित किया है।
जिनभद्रगणि ने व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप में मतभेद को स्पष्ट किया है। पूज्यपाद आदि के अनुसार अव्यक्त ग्रहण व्यंजनावग्रह तथा व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह है, जिनभद्रगणि का मन्तव्य है कि व्यंजनावग्रह में विषय और विषयी के सन्निपात से दर्शन नहीं होता है। अर्थावग्रह में सामान्य, अनिर्देश्य एवं नाम, स्वरूप जाति से रहित ज्ञान होता है, जिसे अपेक्षा विशेष से दर्शन की श्रेणी में रख सकते हैं। जबकि वीरसेनाचार्य ने प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह