Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [391] अवधिज्ञान जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट 33 सागरोपम एक क्षेत्र में अवस्थित रहता है। अवधिज्ञानी का उत्कृष्ट उपयोग अतमुहूर्त तक होता है। पर्याय की अपेक्षा से 7-8 समय तक होता है। लब्धि की अपेक्षा से अवधिज्ञान उत्कृष्ट 66 सगरोपम तक स्थिर रहता है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार जो अवधिज्ञान क्षेत्र और कालादि की अपेक्षा से जितना उत्पन्न हुआ है उतना ही रहे तो वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है, तथा इसके विपरीत अनवस्थित अवधिज्ञान है। चल द्वार में क्षेत्रादि की अपेक्षा अवधिज्ञान में जो हानि होती है, वह चल कहलाती है। वृद्धि दो प्रकार की होती है - भागवृद्धि और गुणवृद्धि। इनमें भी छह-छह प्रकार होते हैं। अनन्त भाग, असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुणा, असंख्यातगुणा और अनन्तगुणा। द्रव्य में दो, क्षेत्र व काल में चार प्रकार की और भाव में छह प्रकार की वृद्धि और हानि होती है। द्रव्यादि की वृद्धि होने पर अन्य में भी वृद्धि भजना से होती है, लेकिन हानि नहीं होती है। इसी प्रकार हानि होने पर दूसरे में हानि भजना से होती है, लेकिन वृद्धि नहीं होती है। इसी प्रसंग पर जिनभद्रगणि ने वर्धमान और हीयमान अवधिज्ञान के स्वरूप का वर्णन किया है। प्रशस्त परिणामों से द्रव्यादि में वृद्धि होना वर्धमान अवधिज्ञान और अप्रशस्त परिणामों से द्रव्यादि में हानि होने पर हीयमान अवधिज्ञान कहलाता है। जिनभद्रगणि ने तीव्र-मंद द्वार का स्वरूप समझाने के लिए स्पर्धक अवधिज्ञान का वर्णन किया है। जिस प्रकार दीपक पर जालीदार बर्तन ढंकने पर छिद्रों से उसकी प्रभा बाहर निकलती है, उसी प्रकार जिन आत्म प्रदेशों पर अवधिज्ञानावण का क्षयोपशम होता है, वे आत्म प्रदेश स्पर्धक कहलाते हैं और उसी को स्पर्धक अवधिज्ञान कहते हैं। स्पर्धक के तीन प्रकार होते हैं - अनुगामी, अननुगामी और मिश्र। अनुगामी और अप्रतिपाती स्पर्धक अति विशुद्ध होने से तीव्र कहलाते हैं तथा अननुगामी और प्रतिपाती स्पर्धक अशुद्ध होने से मंद कहलाते हैं और मिश्र स्पर्धक मध्यम कहलाते हैं। इसी प्रकार प्रतिपाती और अप्रतिपाती अवधिज्ञान के स्वरूप पर भी जिनभद्रगणि ने प्रकाश डाला है। प्रतिपाती का अर्थ होता है, उत्पन्न होने के बाद गिरने के स्वभाव वाला तथा जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद नहीं गिरने वाला हो वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। अप्रतिपाती अवधिज्ञानी को उसी भव में केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। टीकाकारों की इस मान्यता का आगम प्रमाण देकर खण्डन किया गया है कि अप्रतिपाती अवधिज्ञान का अर्थ भव पर्यन्त तक रहने वाला अवधिज्ञान ही समझना चाहिए। प्रतिपाद-उत्पाद द्वार में बाह्य और आभ्यंतर अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है। जो चारों ओर से नहीं देखता हो, या झरोखे की जाली में से निकले हुए दीपक के प्रकाश की भाँति अन्तर सहित अवधि हो, उसे 'बाह्य अवधि' कहते हैं और जो अवधिज्ञान, सभी ओर की दिशाओं में संलग्नता रूप से सीमित क्षेत्र को अन्तर सहित प्रकाशित करता है, उसे 'आभ्यन्तर अवधिज्ञान' कहते हैं। नारकी और देवता में आभ्यंतर, तिर्यंच में बाह्य और मनुष्य में दोनों प्रकार का अवधिज्ञान होता है। अवधिज्ञान-अवधिदर्शन-विभंग द्वारों में कहा गया है कि प्रतिपादित किया गया है कि जो वस्तु के विशेष रूप को ग्रहण करता है वह साकार बोध 'ज्ञान' तथा जो वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है, वह अनाकार बोध 'दर्शन' कहलाता है। सम्यग्दृष्टि के अवधिज्ञान और मिथ्यादृष्टि