Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 506
________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [481] छद्मस्थ में दर्शन और ज्ञान के विषय में श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा दोनों एकमत हैं। केवली के विषय में दिगम्बर परम्परा एक मत से युगपद्वाद का समर्थन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा मे तीन मत प्राप्त होते हैं। 3. क्रमवाद जीवों के उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है कि वह क्रमशः ही होता है। प्रत्येक वस्तु में दो गुणधर्म होते हैं - सामान्य और विशेष। दोनों गुणधर्म क्रम पूर्वक होने पर भी वस्तु में हर समय दो गुणधर्म ही कहे जाते हैं। जैसे - एक पैर को उठाकर एवं दूसरे को नीचे रख कर चलने पर भी दो पांवों से चलना कहा जाता है- वैसे ही यहाँ पर भी केवलज्ञान, केवलदर्शन रूप आत्मा के विशेष एवं सामान्य गुण धर्म साथ में उत्पन्न होने पर भी उनकी प्रवृत्ति क्रमशः होती है। प्रथम समय में केवलज्ञान दूसरे समय में केवलदर्शन का उपयोग होता है। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस सम्बन्ध में विस्तार से सिद्धों के वर्णन में चर्चा करते हुए क्रमवाद का समर्थन आगमिक प्रमाणों के आधार पर किया है। उसी चर्चा को मलधारी हेमचन्द्र ने अपनी टीका में तार्किक रूप से उल्लेखित किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रामण और मलधारी हेमचन्द्र के द्वारा क्रमवाद के उपयोग के सम्बन्ध में जो चर्चा की उसका सरांश निम्न प्रकार से है - सिद्ध कर्म रहति होते हैं और केवली चार अघाती कर्म सहित होते हैं, मात्र इतना ही दोनों में अन्तर है, अत: जैसा उल्लेख जिनभद्रगणि ने सिद्धों के लिए किया है, वैसा ही उल्लेख केवली के लिए भी समझ लेना चाहिए। केवली भगवान् के साकारोपयोग (केवलज्ञान) और अनाकारोपयोग (केवलदर्शन) क्रमश: प्रयुक्त होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र आदि आगमों के अनुसार साकार उपयोग में ही जीव सिद्ध होता है-17 केवलज्ञानी जानता और देखता है (जाणइ और पासइ), इन दो क्रियाओं का प्रयोग आगमों में स्पष्ट रूप से मिलता है 18 भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि में केवलज्ञान को साकार उपयोग और केवलदर्शन को अनाकार-उपयोग बतलाया गया है। अतः सिद्धों (केवली) में युगपद् (एक साथ दो) उपयोग स्वीकार करेंगे, तो इससे प्रज्ञापना सूत्र का उपर्युक्त वर्णन निरर्थक हो जाएगा।20 केवली (सिद्धों) में साकार-अनाकार उपयोगमय लक्षण बताया है और सिद्धान्त में ज्ञान-दर्शन का स्पष्ट रूप से अलग-अलग उल्लेख है। इसलिए साकार-अनाकार उपयोग समान कैसे हो सकते हैं? दोनों में समानता मानने से ज्ञान-दर्शन रूप बारह प्रकार के (मतिज्ञानादि आठ साकार और चक्षुदर्शनादि चार अनाकार) उपयोग कैसे घटित होंगे?221 केवलज्ञान-केवलदर्शन का पृथक् भाव मानने में आता है तो भी कोई दोष नहीं, क्योंकि सिद्धात्मा दर्शन से और ज्ञान से उपयुक्त कहलाती है।22 सभी केवलियों के एक समय में केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनो में से एक उपयोग होता है। इसलिए भद्रबाहुस्वामी ने युगपद् उपयोग का निषेध किया है। 23 217. सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झतिः। - प्रज्ञापना सूत्र भाग 3, पद 36, पृ. 291, उत्तराध्ययन सूत्र अ. 29 सू. 73 218. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, भाग 2, शतक 8, उ. 2, पृ. 285 219. युवाचार्य, मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र भाग 3, श. 16 उ. 7, पृ. 580, प्रज्ञापनासूत्र भाग 3, पद 29, पृ. 153 220. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3089 से 3090 221. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3089 से 3094 222. असरीरा जीवघणा उवउत्ता दसणे य नाणे य। विशेषावश्यकभाष्य भाग 2, मलधारी हेमचन्द्र टीका, पृ. 251 223. नाणम्मि दंसणम्मि अ इत्तो एगयरयम्मि उवउत्तो। सव्वस केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा। - आवश्यकनियुक्ति गाथा 979, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3096

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