Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 537
________________ [512] करते हुए कहा गया है कि मन:पर्यवज्ञान के पूर्व दर्शन नहीं होता है, क्योंकि मन की पर्याय सविकल्प होती है, अत उनका ज्ञान भी सविकल्पक ही होता है। केवलज्ञान - समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों का आत्मा में होने वाला साक्षात् ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। केवलज्ञान के अनेक विशेषण दिये गये हैं, यथा 1. परिपूर्ण, 2. समग्र (सम्पूर्ण), 3. सकल, 4. असाधारण, 5. निरपेक्ष, 6. विशुद्ध, 7. सर्वभावप्रज्ञापक, 8. संपूर्ण लोकालोक विषयक, 9. अनंत पर्याय, 10. अनन्त, 11. एकविध, 12. असपत्न, 13. शाश्वत, 14. अप्रतिपाती, 15. असहाय। इन विशेषणों से केवलज्ञान के स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है। ज्ञानावरण का पूर्ण क्षय होने पर केवलज्ञान प्रकट होता है। इसमें प्रकटीकरण के पूर्व मोहकर्म का पूर्ण क्षय अनिवार्य होता है, क्योंकि मोह कर्म एवं ज्ञानावरणीय कर्म में घनिष्ठ सम्बन्ध है। ज्यों-ज्यों मोह बढता है, त्यों-त्यों ज्ञानावरण कर्म बढ़ता जाता है तथा मोह के घटने के साथ ज्ञान का प्रकटीकरण स्वतः होता रहता है। 'मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्' (तत्त्वार्थसूत्र 10.1) अर्थात् मोह का पूर्ण क्षय होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावण और अन्तराय कर्म अन्तर्मुहूर्त में स्वत: ही क्षय हो जाते हैं। केवलज्ञानी दो प्रकार के होते हैं - भवस्थ और सिद्धस्थ। इस संसार में रहते हुए भी जो केवलज्ञान प्रकट होता वह भवस्थ केवलज्ञान कहा जाता है। वह सयोगी और अयोगी के भेद से दो प्रकार का होता है। शरीर छूटने के पश्चात् जो केवलज्ञान होता है, उसे सिद्धस्थ केवलज्ञान है। छद्मस्थ में दर्शन और ज्ञान के विषय में श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा दोनों एकमत हैं। केवली के विषय में दिगम्बर परम्परा ने एक मत से युगपद्वाद का समर्थन किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में तीन मत प्राप्त होते हैं -1. क्रमवाद, 2. युगपद्वाद, 3. अभेदवाद। हरिभद्रसूरि के अनुसार युगपद्वाद के समर्थक आचार्य सिद्धसेन, क्रमवाद के समर्थक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण और अभेदवाद के समर्थक वृद्धाचार्य हैं। जिनभद्रगणि ने आगमिक मत क्रमवाद को पुष्ट किया है। जिनभद्रगणि ने इस आगमिक मान्यता को पुष्ट किया है कि केवली अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहने पर ही केवली समुद्घात करते हैं। जिनभद्रगणि के अनुसार छद्मस्थों में मनोनिरोध मात्र रूप प्रयत्न ध्यान है तो जिनेश्वरों के काययोग निरोध रूप ध्यान है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध यद्यपि मुख्य रूप से जिनभद्रगणि के विशेषावश्यकभाष्य एवं उस पर मलधारी हेमचन्द्र द्वारा रचित बृहद्वृत्ति पर आधारित है तथापि जैन ज्ञानमीमांसीय अध्ययन को समग्रता प्रदान करने की दृष्टि से समस्त श्वेताम्बर आगम साहित्य तथा दिगम्बर परम्परा के सभी प्रमुख प्राचीन ग्रंथों का अनुशीलन कर ज्ञानमीमांसा के अज्ञात बिन्दुओं का प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। अध्ययन करते समय ज्ञानमीमांसा के अनेक बिन्दुओं पर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में जो मतभेद नजर आये हैं, उनका कथन सम्बन्धित अध्यायों के समीक्षण में किया गया है। विभिन्न विवादास्पद बिन्दुओं की समीक्षा कर निष्कर्ष भी दिये गये हैं। इस शोध-कार्य में जिन अज्ञात तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है तथा स्वमति से जिन तथ्यों की स्थापना की गई है, उनमें से कुछ बिन्दु निम्न प्रकार से हैं

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