Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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14. वैमानिक में जघन्य और उत्कृष्ट अवधि के प्रमाण में जो विसंगति या मतान्तर है, उसका निराकरण किया गया है।
15. अवस्थित अवधिज्ञान के सम्बन्ध में अन्य ग्रंथों में प्राप्त चर्चा का विस्तार से वर्णन करते हुए उसके स्वरूप को स्पष्ट किया गया है।
16. टीकाकारों ने अप्रतिपाती अवधिज्ञान और विपुलमति मन:पर्यवज्ञान को केवलज्ञान के प्रकटीकरण के पूर्व तक रहना स्वीकार किया है, लेकिन आगम प्रमाण देकर इसका खण्डन करते हुए अप्रतिपाती का अर्थ भवपर्यन्त ही मानना चाहिए, इस मत को सिद्ध किया गया है।
17. प्रतिपात-उत्पाद द्वार के माध्यम से बाह्य और आभ्यंतर अवधिज्ञान का वर्णन किया गया
18. दिगम्बर परम्परा में ऋजुमति और विपुलमति के प्रभेदों का उल्लेख है, श्वेताम्बर साहित्य में इनका उल्लेख नहीं होते हुए भी अर्थान्तर से इन प्रभेदों के बीज प्राप्त होते हैं, इसका स्पष्टीकरण किया गया है।
19. स्वामी, विशुद्धि, विषय, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, अज्ञान, शक्ति और प्रत्यय की अपेक्षा से अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों में भिन्नता सिद्ध की गई है।
20. श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्यता के अनुसार ऋजुमति-विपुलमति मन:पर्यवज्ञान के स्वरूप का स्पष्ट किया है। 21. ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यवज्ञान के प्रभेदों का उल्लेख दिगम्बर ग्रंथों में मिलता है
रम्पराओं में ऋजुमति और विपुलमति के प्रभेदों के सम्बन्ध में अपेक्षा विशेष से मान्यता भेद है। इसको स्पष्ट किया गया है।
22. मन:पर्यवज्ञान से जानने की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है। ___23. मनःपर्यवज्ञान का दर्शन क्यों नहीं होता है, इसका स्पष्टीकरण आगमानुसार किया गया
24. अन्तरसिद्ध केवलज्ञान के भेदों को अन्य आगम-ग्रंथों के आधार से विशेष स्पष्ट किया गया है।
25. नपुसंकलिंग सिद्ध में टीकाकारों ने कृत्रिम नपुंसक का ही ग्रहण किया है, लेकिन आगम आधारों से जन्म नपुसंक भी मोक्ष जा सकता है, इसकी सिद्धि की गई है।
26. प्रसंगानुसार केवली समुद्घात, केवली योग निरोध आदि का वर्णन श्वेताम्बर और दिगम्बर के आगम-ग्रंथों के आधार पर विशेष रूप से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।
इस प्रकार प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध विशेषावश्यक भाष्य का सहयोग लेते हुए श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के अन्य आगम-ग्रंथों में जो मतभेद अथवा समानताएं हैं, उनकी चर्चा की गई है। इससे जैन वाङ्मय में निरूपित ज्ञानमीमांसा के सम्बन्ध में तुलनात्मक जानकारी इस शोध-प्रबन्ध में समीक्षित हुई है।