Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 509
________________ [484] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन जानते हैं क्या उसी समय देखते हैं? और जिस समय देखते हैं क्या उसी समय जानते हैं? हे गौतम ! तुम्हारा यह अर्थ योग्य नहीं है। हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है? हे गौतम! उसमें से साकार ज्ञान होता है और अनाकार दर्शन होता है, इस लिए ऐसा कहा है। इस प्रकार सिद्धान्त में भी युगपद् उपयोग का निषेध किया है, फिर भी जो क्रमश: उपयोग नहीं मानते हैं, यह उनका कदाग्रह ही है।33 9. भगवतीसूत्र में केवली के युगपद् दो उपयोग का निषेध किया है, इस प्रसंग में हम तो 'केवली' शब्द का अर्थ 'छद्मस्थ' करते हैं। जैसेकि 'केवली इव केवली' केवली जैसे केवली अर्थात् जो केवली नहीं है फिर भी केवली के समान है, वे केवली हैं। यहाँ पर 'इव' शब्द का लोप करके केवली का उपर्युक्त अर्थ करते हैं। अथवा 'केवली शास्ताऽस्येति केवलिमान्' केवली जिसकों शिक्षा देता है, वे केवली है, इस प्रकार 'मतुप्' प्रत्यय का लोप करके ऐसा अर्थ किया जाता हैं। ऐसे छद्मस्थ केवली के आगमकारों ने युगपद् दो उपयोग का निषेध किया है, निरुपचरित केवली के नहीं। दूसरे फिर ऐसा कहते हैं कि भगवतीसूत्र में केवली के युगपद् उपयोग का निषेध करने का जो सूत्र है, वह अन्यदर्शन की वक्तव्यता के संबंध में है। क्योंकि यह किसी प्रसंग में बताया है। लेकिन हमें (प्रतिपक्षी को) यह मान्य नहीं है। इस कारण से केवली के क्रमश: दो उपयोग से हम (प्रतिपक्षी) सहमत नहीं हैं। जिभद्रगणि के अनुसार पूर्वोक्त भगवती सूत्र के का असमीची अर्थ करके परवादी युगपद् दो उपयोग को ही स्वीकार कर रहे हैं, उनका कथन सर्वथा अयोग्य है। क्योंकि भगवती के अठारहवें शतक के आठवें उददेशक में प्रथम छद्मस्थ आघोवधिक का निर्देश करने के बाद केवली का निर्देश किया गया है 34 इस कारण से युक्ति रहित होकर मात्र धूर्तता पूर्वक 'इव' और 'मतुप्' प्रत्यय का लोप करके 'केवली' शब्द का अर्थ छद्मस्थ करना परवादियों का मात्र कदाग्रह ही है। यदि इस प्रसंग में आगमकारों को छद्मस्थ इष्ट होता तो उस स्थान पर केवली शब्द का प्रयोग नहीं करके छद्मस्थ के योग्य शब्द का प्रयोग करके उसको ही का निर्देश कर देते 35 10. कुछ प्रतिपक्षी कहते हैं कि अन्यदर्शन संबधी वक्तव्यता के लिए यह सूत्र है-36 तो उनकी भी शंका का निवारण जिनभद्रगणि निम्न प्रकार से करते हैं - गाथा 3112 में दिये गये प्रमाण से क्रमोपयोग की स्पष्ट रूप से सिद्धि होते हुए भी जो प्रतिपक्षी ऐसा कहते हैं कि यह निषेध सूत्र अन्यदर्शन से संबंधित है। उनकी कैसी विपरीत बुद्धि है? क्योंकि भगवती सूत्र37 के श. 25 उ. 6 में स्नातक के दो में से एक उपयोग प्रगट होता है। यह प्रमाण सर्वज्ञभाषित सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा है। यह सूत्र में अन्यदर्शन संबंधी वक्तव्यता के लिए कहा है ऐसा कैसे कहते हैं?238 इस प्रकार आगमों में सभी स्थलों पर एकतर (क्रमशः) उपयोग वाले जीवों का ही प्रतिपादन किया गया है। परन्तु किसी भी स्थूल में उभय उपयोग वाले जीव के बारे में कथन नहीं किया है। यदि किसी भी केवली के किसी भी काल में दो उपयोग होते तो उभय उपयोग वाले जीवों का प्रतिपादन करने के लिए कहीं ना कहीं आगमकार एक तो सूत्र का उल्लेख करते ही। लेकिन ऐसा एक भी सूत्र नहीं देखा गया है। इसी प्रकार साकार-अनाकार इन दो उपयोगवाले जीवों की अल्पबहुत्व प्रज्ञापनासूत्र-40 में बताई है। लेकिन युगपद् उभय उपयोग वाले जीव का कथन नहीं किया 233. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3110-3112 234. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग 3, शतक 18 उ. 8, पृ. 734-735 235. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3113-3114 236. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3112 में निर्दिष्ट 237. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग 4, शतक 25 उ. 6, पृ. 420-421 238. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3119-3121 239. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3122-3123 240. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र भाग 1, पद 3, पृ. 247-248

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