Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 507
________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 1. सभी केवलियों के युगपद् दो उपयोग नहीं होते हैं । परंतु किसी के दो होते हैं और किसी के एक होता है। जैसे कि भवस्थ केवली के एक समय में एक और सिद्धकेवली के एक समय में दो उपयोग हो सकते हैं। किन्तु ऐसा भी कहना अयोग्य है, क्योकि सिद्धों के अधिकार में युगपद् दो उपयोग का निषेध किया है अर्थात् 'नाणम्मि दंसणम्मि य... ' गाथा 3096 से एक समय में एक उपयोग सिद्ध है। अतः सभी केवलियों में युगपद् दो उपयोग नहीं होते हैं 24 2. ‘...उवउत्ता दंसणे य नाणे यत्ति । भणियं, तो जुगवं सो...' गाथा 3095 में ज्ञान-दर्शन युगपद् उपयोग होता है, ऐसा जो कथन किया गया है, वह कथन समुच्चय की अपेक्षा से है, क्योंकि अनंत सिद्धों में से किसी सिद्ध के ज्ञानोपयोग होता है तो किसी सिद्ध के दर्शनोपयोग होता है । परन्तु प्रत्येक सिद्ध की अपेक्षा से एक समय में युगपद् (उभय) उपयोग का निषेध किया है 25 [482] 3. केवलज्ञान और केवलदर्शन अविनाशी होने से सदा अवस्थित रहते हैं। इससे उनका उपयोग युगपद् होता है। ऐसा मानना भी अयोग्य है। लब्धि की अपेक्षा से केवलज्ञान - केवलदर्शन हमेशा विद्यमान रहते हैं। इससे दोनो का उपयोग भी हमेशा हो ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानकेवलदर्शन के अलावा शेष ज्ञान और दर्शन का उपयोग स्व-स्व स्थिति काल पर्यन्त नहीं होने से भी उनकी विद्यमानता रहती है। इस प्रमाण से विद्यमान ज्ञान-दर्शन का उपयोग निरंतर होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है। प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार लब्धि रूप में सभी उपयोग स्व-स्व स्थिति काल पर्यन्त विद्यमान रहते हैं। लेकिन बोधात्मक उपयोग तो अंतर्मुहूर्त का ही होता है 26 इसी प्रकार केवलज्ञान और केवलदर्शन भी लब्धि से तो अनंतकाल तक स्थायी हैं, परन्तु उपयोग से एक समय की ही स्थितिवाले होते हैं 27 4. एक समय में केवलज्ञान का उपयोग और दूसरे समय में केवलदर्शन का उपयोग इस प्रकार क्रमशः उपयोग होता है, तो ज्ञान और दर्शन का प्रतिसमय अंत होगा है अर्थात् प्रत्येक समय के बाद केवलज्ञान और केवलदर्शन का बार-बार अभाव जाएगा। इससे सिद्धान्त में कहे हुए उसके अनंतपने का अभाव हो जाता है। दूसरी बात वह है कि दोनों का क्रम मिलाने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन एक दूसरे के आवरण करने वाले होगे, क्योंकि कर्मावरण का अभाव होने पर भी एक का सद्भाव और दूसरे का अभाव हो रहा है, इससे केवलज्ञान के अनुपयोग काल में असर्वज्ञपना और केवलदर्शन के अनुपयोग काल में असर्वदर्शीपना प्राप्त होगा। जिनेश्वरों में असर्वज्ञपना और असर्वदर्शीपना मानना आपको को इष्ट नहीं है। इस प्रकार की शंका भी अयुक्त है क्योंकि इस प्रकार तो छद्मस्थ में भी ज्ञान-दर्शन का एकान्तर उपयोग मानने से उपर्युक्त सारे दोषों की प्राप्ति होगी, क्योंकि ज्ञान के अनुपयोग के समय अज्ञानित्व और दर्शन के अनुपयोग के समय अदर्शित्व आवरण का मिथ्या क्षय और निष्कारण आवरणता ये दोष छद्मस्थ भी प्राप्त होंगे 1228 5. केवली तो सर्वथा आवरण से रहित होते हैं और छद्मस्थ सर्वथा आवरण रहित नहीं होते हैं। इसलिए छद्मस्थ के ज्ञानदर्शन के युगपद् उपयोग में बाधा है। जिनेश्वर सर्वथा आवरण रहित होने से उनके युगपद् उपयोग में कोई बाधा नहीं है । इस तर्क को मान भी लिया जाए तो भी छद्मस्थ के देश से आवरण का क्षय तो होता ही है । अतः सभी वस्तुओं के विषय में ज्ञान दर्शन का उपयोग 224. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 3097-3098 225. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3099 226. सागारोवडत्ते णं भंते! पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । अणागारोवउत्ते वि एव चेव । युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापना सूत्र भाग 2, पृ. 358-359 228. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3102-3103 227. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3100-3101

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