Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
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है कि बोलते समय केवलियों के शब्द श्रुत नहीं लेकिन श्रोता को सुनने के बाद उन शब्दों से भावश्रुत होता है। इसलिए कारण कार्य के उपचार से वह द्रव्यश्रुत कहलाता है अथवा वचन योग ही श्रुत है फिर भी शेष के लिए गुणभूत् श्रुत है । क्योंकि वह भावश्रुत का कारण होने से अप्रधान श्रुत है अर्थात् बोलने वाले के ही वह वचन योग श्रुत है अथवा सुनने वाले के श्रुत का कारण होने से वचन योग श्रुत है, ऐसा कुछ लोग कहते हैं । किन्तु केवलज्ञानी जो वचन योग से प्रज्ञापनीय पदार्थों का कथन करते हैं, वह श्रुतुज्ञान नहीं है, प्रत्युत भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से ऐसा करते हैं। श्रुतुज्ञान क्षयोपशमिक है और केवलज्ञान में क्षयोपशभाव का अभाव होता है। भाषा पर्याप्ति नाम कर्मोदय से जब वे प्रवचन करते हैं, तब उनका वह वाग्योग द्रव्यश्रुत कहलाता है, वह भावश्रुत पूर्वक नहीं, बल्कि केवलज्ञान पूर्वक होता है, भावश्रुत भगवान् में नहीं, अपितु श्रोता में पाया जाता है अर्थात् जो प्राणी सुन रहे है, उनके वही द्रव्यश्रुत भावश्रुत का कारण होता है । अतः भावश्रुत का कारण होने से इसकी द्रव्यश्रुतता स्वीकार की गई है। सम्यग्दृष्टि में जो भावश्रुत है, वह भगवान् का दिया हुआ श्रुतज्ञान है। 252 ऐसा ही उल्लेख हरिभद्र, मलयगिरि ने भी किया है। 253
पंचास्तिाकय में भी कहा है कि ज्ञेय के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता, इसलिए केवलज्ञान को श्रुतज्ञान नहीं कह सकते और न ही ज्ञानाज्ञान कह सकते हैं। किसी विषय में तो ज्ञान हो ओर किसी विषय में अज्ञान हो, ऐसा नहीं, किंतु सर्वत्र ज्ञान ही है 17254 केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर
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कन्हैयालाल लोढ़ा के अनुसार केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर केवल यह है कि श्रुतज्ञान जब तक स्वभाव का स्वाभाविक स्वयंसिद्ध ज्ञान आवश्यकता, माँग और साध्य रूप में होता है अर्थात् अनुभव के रूप में नहीं होता तब श्रुतज्ञान कहा जाता है। अनुभव रूप में नहीं होने से इसे परोक्ष ज्ञान कहा है और जब यह श्रुतज्ञान वीतराग अवस्था में एकत्व, विर्तक, अविचार शुक्लध्यान में ज्ञाता के एकरूप हो जाता है अर्थात् जब मांग की पूर्ति होकर श्रुतज्ञान पूर्ण अनुभव और बोध के रूप में प्रत्यक्ष हो जाता है, तब केवलज्ञान कहलाता है। 255
केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में जातीय एकता है और गुणों की भिन्नता है, क्योंकि श्रुतज्ञान और केवलज्ञान, ये दोनों जीव के स्वभाव के, साध्य के, सिद्धावस्था के सूचक हैं, अतः इनमें जातीय एकता है । गुण की दृष्टि से केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में यह अन्तर है कि केवलज्ञान में श्रुतज्ञान के अनुरूप पूर्ण शुद्ध आचरण होता है, अनुभव होता है, दर्शन होता है अर्थात् केवलदर्शन होता है जबकि श्रुतज्ञान में ज्ञान के अनुरूप आंशिक आचरण होता है, परन्तु दर्शन नहीं होता है । इस कथन का समर्थन गोम्मटसार ( जीवकांड गाथा 369 ) करता है। श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है, जबकि केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। श्रुतज्ञान पूर्णज्ञान नहीं है और केवलज्ञान पूर्णज्ञान है 1256
केवलज्ञान का विषय
क्षायोपशमिक मतिज्ञान आदि चार ज्ञान का विषय धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों में से केवल मूर्त पुद्गलद्रव्य और क्षायिक केवलज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त सभी द्रव्य हैं। विशेषावश्यकभाष्य में इस सम्बन्ध में विशेष वर्णन प्राप्त नहीं होता है। नंदीसूत्र आदि में इस सम्बन्ध में जो वर्णन प्राप्त होता है, उसी की यहाँ समीक्षा की गई है।
252. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 830 से 836 की बृहद्वृत्ति का भावार्थ 253. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ. 42, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 139 255. बन्ध तत्त्व, पृ. 5, 27
254. पंचास्तिकाय, गाथा 41, प्रक्षेप गाथा 5 256. बन्ध तत्त्व, पृ. 8