Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 472
________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [447] 8. मलधारी हेमचन्द्र ने कहा है कि जिस ज्ञान से जीवादि सभी द्रव्यों को तथा प्रयोग, स्वभाव और विस्रसा परिणाम रूप उत्पाद आदि सभी पर्यायों से युक्त सत्ता को विशेष प्रकार से जाना जाता है एवं भेद बिना भी सभी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अस्ति रूप से जाना जाता है, वह केवलज्ञान है। 9. उपाध्याय यशोविजयजी (18वीं शताब्दी) के ज्ञानबिन्दप्रकरण के मन्तव्यानसार जो आत्ममात्र सापेक्ष है, बाह्य साधन निरपेक्ष है, सब पदार्थों को अर्थात् त्रैकालिक द्रव्य पर्यायों को साक्षात् विषय करता है, वही केवलज्ञान है। 10. घासीलालजी महाराज के अनुसार - जिस ज्ञान में ज्ञानावरणीय कर्म का समूल क्षय होता है। भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान काल के समस्त पदार्थ जिसमें हस्तामलकवत् प्रतिबिम्बित्व होते रहते हैं तथा जो मत्यादिक क्षायोपशमिक ज्ञानों से निरपेक्ष रहता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं दिगम्बर आचार्यों की दृष्टि में केवलज्ञान का लक्षण - 1. आचार्य कुन्दकुन्द (द्वितीय-तृतीय शती) के प्रवचनसार के अनुसार - जो ज्ञान प्रदेश रहित (कालाणु तथा परमाणुओं) को, प्रदेश सहित (पंचास्तिकायों) को, मूर्त और अमूर्त तथा शुद्ध जीवादिक द्रव्यों को, अनागत पर्यायों को और अतीत पर्यायों को जानना है, उस ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान कहते हैं। आचार्य कुंदकुंद नियमसार में कहते हैं कि केवलज्ञान का लक्षण व्यवहारनय और निश्चयनय की दृष्टि से भी किया है - व्यवहारनय से केवली भगवान् सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चयनय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। वह स्वप्रकाशी है, इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चयनय से आत्मा को जानता देखता है, यह लक्षण संगत है। वह परप्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण व्यवहार नय से संगत है। 2. कसायपाहुड के रचयिता आचार्य गुणधरानुसार (द्वितीय-तृतीय शती) - असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है। इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। 3. आचार्य भूतबलि-पुष्पदंत (द्वितीय-तृतीय शती) के अनुसार - वह केवलज्ञान सकल है, संपूर्ण है और असपत्न है। 4. अमृतचन्द्रसूरि ने तत्वार्थसार में कहा है कि - जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित, आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रमरहित हो, घाती कर्मों के क्षय से उत्पन्न हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो, उसे केवलज्ञान कहते हैं। 19. मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 823 की टीका, पृ. 336 20. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, पृ. 19 21. घासीलालजी म., नंदीसूत्र, पृ. 17,18 22. अपदेसं सपदेसं मत्तमत्तं च पज्जयमजादं। पलयं गयं च जाणादि तं णाणमदिंदियं भणियं।-प्रवचनसार, गाथा 41, पृ. 70 23. नियमसार, हस्तिनापुर, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, प्र. सं. 1985, गाथा 159 पृ. 463 24. कसायपाहुडं, पु. 1, पृ. 19 25. तं च केवलणांणं सगलं संपुण्णं असवतं । षट्खण्डागम पु. 13 सूत्र 5.5.81 पृ. 345 26. असहायं स्वरूपोत्थं निरावरणमक्रमम्। घातिकर्म क्षयोत्पन्नं केवल सर्वभावगम्। - तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, गाथा 30 पृ.15

Loading...

Page Navigation
1 ... 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548