Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 489
________________ [464] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन केवलज्ञान किसे उत्पन्न होता है और कब तक रहता है, इस विषय में दार्शनिकों में बहुत मतभेद रहा है। १. कोई अनादिसिद्ध - एक ईश्वर में ही अनादि से केवलज्ञान होना मानते हैं, किन्तु सामान्य जीव में केवलज्ञान होना नहीं मानते। २. जो सामान्यजीव में केवलज्ञान होना मानते हैं, उनमें कोई संसार अवस्था में केवलज्ञान उत्पन्न होना मानते हैं, लेकिन सिद्ध अवस्था में वह नष्ट हो जाता है - ऐसा मानते हैं। ३. कोई संसार अवस्था में केवलज्ञान होना नहीं मानते, सिद्ध अवस्था के साथ ही केवलज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं। ४. कोई सयोगी अवस्था में केवलज्ञान होना नहीं मानते, अयोगी अवस्था में होना मानते हैं, इत्यादि कई मत रहे हैं।139 उन सब का निराकरण करने के लिए परम्परसिद्धों के भेदों का उल्लेख किया हैं, जो इस प्रकार है - परम्पर सिद्ध केवलज्ञान के भेद - परम्पर सिद्ध केवलज्ञान के अनेक भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - जितने भी अप्रथम समय सिद्ध हैं (जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय बीत चुका है) जैसे - १. द्विसमयसिद्ध (जिन्हें सिद्धत्व का दूसरा समय है) २. त्रिसमय सिद्ध (जिन्हें सिद्धत्व का तीसरा समय है) ३. चतुःसमय सिद्ध यावत् ९. दश समय सिद्ध १०. संख्यात समय सिद्ध ११. असंख्यात समय सिद्ध १२. अनन्त समय सिद्ध अर्थात जिन्हें सिद्ध हुए समयों की 'एक दो' इस प्रकार की परम्परा आरम्भ हो चुकी है, उन सभी सिद्धों का केवलज्ञान, परम्परसिद्ध केवलज्ञान है। 40 उपर्युक्त सिद्ध केवलज्ञान के अनन्तर और परंपर ये दो भेद काल की दृष्टि से हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में अनंतर-परम्पर इन भेदों के अलावा सिद्ध सामान्य की विचारणा की गई है, जिसमें उपर्युक्त तीर्थ आदि छह भेदों के अलावा दूसरे प्रकार से क्षेत्रादि बारह की अपेक्षा से भी वर्णन किया गया है। प्रश्न - सभी सिद्ध भगवान् ज्ञान दर्शन आदि की अपेक्षा एक समान होते हैं, तो अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध भेद करने की क्या आवश्यकता है? उत्तर - सभी सिद्ध गुणों एवं शुद्धता (कर्मरहिता) की दृष्टि से समान होते हुए भी पर्याय की दृष्टि से उनमें भेद हो सकता है। अनन्तर (प्रथम समय) सिद्धों के मनुष्य भव के अन्तिम समय में वेदे गये चार अघाति कर्मों की निर्जरा होती है। किसी की कर्म के वेदन के अगले समय में ही निर्जरा होती है, वेदन के समय में नहीं एवं शेष सिद्धों के निर्जरा नहीं होती है। यह भेद बताने के लिए ही सिद्धों के अनन्तर सिद्ध और परम्पर सिद्ध ये दो भेद किये हैं। अनन्तर सिद्धों के प्रज्ञापना में तीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह और उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 36 में चौदह भेद किये गये हैं, जो इस प्रकार से हैं - 1. स्त्रीलिंग-सिद्ध, 2. पुरुषलिंग-सिद्ध, 3. नपुंसकलिंग सिद्ध, 4. स्वलिंगसिद्ध, 5. अन्यलिंग-सिद्ध, 6. गृहस्थ-लिंग सिद्ध, 7. जघन्य, 8. मध्यम और 9. उत्कृष्ट प्रकार की अवगाहना में सिद्ध, 10. ऊर्ध्वलोक में (मेरु चूलिका आदि पर) 11. अधोलोक, 12. तिर्यग्लोक, 13. समुद्र और 14. जलाशय में सिद्ध हो सकते हैं। 42 परम्पर सिद्धों में कालकृत (अलग-अलग समयों में सिद्ध होने रूप) भेदों के सिवाय भेद नहीं होने से प्रज्ञापना सूत्र में अप्रथम समयसिद्ध 139. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 93 140. परंपरसिद्धकेवलणाणं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा-अपढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, चउसमयसिद्धा जाव दससमयसिद्धा, संखिज्जसमयसिद्धा, असंखिज्जसमयसिद्धा, अणंतसमयसिद्धा। - पारसमुनि. नंदीसूत्र, पृ. 92 141. तत्त्वार्थसूत्र, 10.7 142. इत्थी-पुरिस-सिद्धा य, तहेव य णपुंसगा। सलिंगे अण्णलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥ उक्कोसोगाहणाए य, जहण्णमज्झिमाइ य। उर्दु अहे य तिरियं च, समुद्दम्मि जलम्मि य॥ - उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन 36 गाथा 50-51

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