Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[474] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
दिगम्बर परम्पार के अनुसार योग निरोध - केवली भगवान् केवली समुद्घात के अंतर्मुहूर्त बाद बादर काययोग से बादर मनोयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अंतर्मुहूर्त बादर वचनयोग का निरोध करते हैं। पुनः अंतर्मुहूर्त से बादर काययोग से बादर उच्छ्वास नि:श्वास का निरोध करते हैं। पुनः अंतर्मुहूर्त से बादर काय योग से उसी बादर काययोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात अंतर्मुहूर्त के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अंतर्मुहूर्त बाद सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करते हैं। पुनः अंतर्मुहूर्त के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म उच्छ्वास-नि:श्वास का निरोध करते हैं। पुन: अंतर्मुहूर्त के बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं। उस समय केवली भगवान् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान को ध्याते हैं। योग का निरोध जाने पर तीन अघाती कर्म आयु के सदृश हो जाते हैं।186 लगभग ऐसा ही वर्णन पूज्यपाद और अकलंक ने भी किया है। 187 मन के अभाव में केवली के ध्यान कैसे?
मन की एक निश्चित एकाग्र अवस्था को ध्यान कहते हैं। केवली के मन का अभाव होता है, तो फिर केवली में ध्यान कैसे घटित होगा? जिनभद्रगणि कहते हैं कि आगम में तीन प्रकार के योगों के व्यापार को ध्यान बताया है। (मात्र मन विशेष ही ध्यान है ऐसा नहीं, परन्तु वचन और काया के व्यापार को भी ध्यान कहा है) क्योंकि मन, वचन और काय रूप विद्यमान कारणों के सुदृढ प्रयत्न से जो व्यापार होता है, उसे जिनेश्वरों ने ध्यान कहा है। मन के निरोधमात्र को ही ध्यान नहीं माना है
और मन के अभाव में जिनेश्वर के मन संबंधी और वचन संबंधी ध्यान नहीं होता है, परन्तु काययोग के निरोध के प्रयत्न रूप स्वभाव वाला ध्यान तो होता ही है। छद्मस्थ के मनोनिरोध मात्र रूप प्रयत्न ध्यान है तो जिनेश्वरों के काययोग निरोध प्रयत्न रूप ध्यान है। 188
पूर्वपक्ष - जो जिनेश्वरों के मन का अभाव होने पर भी छद्मस्थ के समान सूक्ष्मक्रियानिवृत्यादि ध्यान मानते हैं, तो सोये हुए जीव के भी ध्यान मानना चाहिए। (मन का अभाव तो वहां भी है।)
उत्तरपक्ष - सोये हुए जीव के काययोग निरोध करने रूप प्रयत्न का सद्भाव नहीं होता है, इससे उसके ध्यान नहीं माना जा सकता है। जबकि जिनेश्वरों के कायनिरोध के प्रयत्नों का सद्भाव होता है, इससे उनमें ध्यान बताया है।189
पूर्वपक्ष - मन के अभाव में जिनेश्वरों के काय-निरोध के प्रयत्न का सदभाव कैसे होता है? क्योंकि सोये हुए व्यक्ति के तो किंचित् मात्र मन होता है, जिनेश्वरों के तो वह भी नहीं होता है। अतः जब सोये हुए व्यक्ति में ध्यान नहीं है तो जिनेश्वरों में कैसे होगा?
उत्तरपक्ष - यह सही है कि मन रूप करणमात्रानुसार ज्ञानवाले छद्मस्थ के सुप्तावस्था में मन के अभाव में काय निरोध के प्रयत्न का भी अभाव है। परन्तु जिनेश्वर के लिए यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि मन का अभाव होते हुए भी उनके केवलज्ञान है। जैसे कि मन मात्र के प्रयत्न को छद्मस्थ में ध्यान माना है, तो केवलज्ञान से विहित काययोग निरोध प्रयत्न वाले जिनेश्वर में कैसे नहीं होगा, अर्थात् होगा ही। भवस्थ केवली के चिन्ता का अभाव होते हुए भी हमेशा सूक्ष्म क्रिया निवृत्ति और उसके बाद क्रिया प्रतिपाति यह दो ध्यान माने हैं, क्योंकि उस अवस्था में तथाविध जीव के स्वभाव से, पूर्वविहित ध्यान के संस्कारादि से, कर्म निर्जरा के हेतु से तथा 'ध्यै' धातुरूप शब्द के बहुत अर्थ होने से जिनेश्वरों के आगम में दो ध्यान कहे हैं। 90 186. षट्खण्डागम, पु. 6, 1.9-8.16, पृ. 414-417 187. सर्वार्थसिद्धि 9.44, तत्त्वार्थराजवार्तिक 9.44 188. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3070 से 3073
189. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3074 से 3075 190. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3076 से 3080