Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 500
________________ शैलेषी अवस्था (विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3065 से 3069) सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [475] पूर्वपक्ष - जब अमनस्क केवली के ध्यान मानते हैं तो सिद्ध भी अमनस्क होते हैं, उनमें भी ध्यान मानना चाहिए? उत्तरपक्ष - सिद्धों में कारण के अभाव से प्रयत्न नहीं होता है और न ही किसी भी प्रकार के योग का निरोध करना शेष है, इसलिए सिद्धों में ध्यान नहीं होता है।91 सिद्ध अवस्था की प्राप्ति शैलेशी अवस्था में स्वल्पकाल तक पांच ह्रस्वाक्षरों - 'अ इ उ ऋ लु का' उच्चारण किया जाए, (यह उच्चारण न अतिशीघ्र होता है, न प्रलम्ब, किन्तु मध्यम भाव में होता है) इतने काल तक केवली (असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल) समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति नामक शुक्लध्यान के चतुर्थपाद के ध्यान में लीन बना हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र - इन चार अघाती कर्मों को भोगते हैं। शैलेशी अवस्था में असंख्यात गुण श्रेणियों से प्राप्त तीनों कर्मों के असंख्यात कर्म स्कन्धों की प्रदेश और विपाक से निर्जरा कर चरम समय में मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, सुभगनाम, आदेयनाम, साता और असाता वेदनीय की दोनों में से एक, मनुष्यायु, उच्चगोत्र, यशनाम, जिननाम और मनुष्यानुपूर्वी इन तेरह प्रकृतियों को तीर्थंकर एवं जो तीर्थंकर नहीं है अर्थात् जिननाम का उदय नहीं वे बारह प्रकृतियों का क्षय चरम समय में करते हैं। इन चार अघाति कर्मों को युगपत् (एक साथ) क्षय करते ही औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों का पूर्णतया सदा के लिये त्याग कर देते हैं।192 केवली जितने आकाश प्रदेशों को अवगाहित करके रहे हुए हैं उतने ही आकाश प्रदेशों का ऊपर ऋजु श्रेणी से अवगाहते हुए अस्पृश्यमान गति से (दूसरे समय और प्रदेश का स्पर्श न करते हुए अर्थात् नहीं रुकते हुए) एक समय की अविग्रहगति से ऊपर सिद्धि गति में जाकर साकार केवलज्ञान उपयोग से उपयुक्त सिद्ध हो जाते हैं, बुद्ध हो जाते हैं, समस्त कर्मों से मुक्त हो जाते हैं, सब प्रकार की कर्माग्नि को सर्वथा बुझा कर शान्त हो जाते हैं, सभी दु:खों का अन्त कर देते हैं। जैसे अग्नि से जले हुए बीजों से पुनः अंकुर उत्पन्न नहीं होते उसी प्रकार कर्म बीज के जल जाने से सिद्ध पुनः जन्म ग्रहण नहीं करते। सिद्धिगति में ये सिद्ध भगवान् सदा के लिए अशरीरी, जीव घन (घनीभूत जीव प्रदेश वाले) दर्शन ज्ञान से उपयुक्त, कृतकृत्य, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर (कर्म रूप अन्धकार से रहित) और विशुद्ध बने रहते हैं। सभी दुःखों से निस्तीर्ण, जन्म-जरा और मरण के बन्धन से मुक्त, ये सिद्ध शाश्वत अव्याबाध सुख से सदैव सुखी रहते हैं।193 सिद्ध जीव के सम्बन्ध में जिज्ञासा-समाधान जब जीव सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार की कर्माग्नि को सर्वथा बुझा कर शान्त हो जाता है, सभी दुःखों का अन्त कर ऊर्ध्वलोक में लोकान्त में जाकर सिद्ध हो जाता है। प्रश्न - जीव लोकान्त तक कैसे जाता है? उत्तर - लोक का अन्तिम भाग जहाँ से अलोकाकाश का प्रारम्भ होता है। लोक के उस अंतिम भाग के स्थान का नाम सिद्धिगति या सिद्धालय है। इस स्थान पर जीव ऊर्ध्वगति से गमन करता हुआ बिना मोड लिये सरल सीधी रेखा में गमन करता हुआ अपने देह त्याग के स्थान से एक समय मात्र 191. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3081 192. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3082 से 3085

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548