Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 496
________________ सप्तम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [471] को व्यापृत-प्रवृत्त करना आवर्जीकरण है तथा 4. आ-मर्यादा में केवली की दृष्टि से शुभयोगों का प्रयोग करना भी आवर्जीकरण है। केवली समुद्घात की प्रकिया श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार - केवली समुद्घात में आठ समय लगते हैं। केवली भगवान् पहले समय में आत्मप्रदेशों को लम्बाई में ऊपर और नीचे लोक पर्यन्त, चौड़ाई में अपने शरीर प्रमाण दण्ड रूप करते हैं। दूसरे समय में आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम में फैला कर कपाट बनाते हैं। तीसरे समय में दक्षिण और उत्तर दिशा में आत्मप्रदेशों को फैलाकर मंथान करते हैं। इस प्रकार लोक से कुछ कम क्षेत्र को स्पर्श करते हैं। चौथे समय में अंतर पूरित करके लोक को सम्पूर्ण रूप से स्पर्श करते हैं अर्थात् चौथे समय में सारा लोक भर देते हैं। पुनः प्रतिलोम क्रम से आत्मप्रदेशों का संहरण करते हैं अर्थात् पांचवें समय में लोक का संहरण करते हैं, छठे समय में मन्थान का, सातवें समय में कपाट का और आठवें समय में दण्ड का संहरण करते हैं और नवमें समय में केवली भगवान् शरीरस्थ हो जाते हैं । (आठवें समय में दण्ड संहरण करना और शरीरस्थ होना ये दो क्रियाएं होती हैं। नवमें समय में दण्ड संहरण की क्रिया नहीं होती है। संहरण रहित (पूर्ववत्) शरीरस्थ अवस्था हो जाती है ।)17 दिगम्बर परम्परा के अनुसार - दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के भेद से केवली समुद्घात चार प्रकार का है। केवली के आत्मप्रदेशों को दण्डाकार से कुछ कम चौदह राजू उत्सेध रूप फैलाने का नाम दण्ड समुद्घात है। दण्ड समुद्घात के बाद पूर्व पश्चिम में वात वलय से रहित सम्पूर्ण क्षेत्र को व्याप्त करने का नाम कपाट समुद्घात है। केवली भगवान् के आत्मप्रदेशों का वात वलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर संपूर्ण लोक में व्याप्त होने का नाम प्रतर समुद्घात है। घन लोकप्रमाण केवली भगवान् के आत्मप्रदेशों का सर्व लोक में व्याप्त होते को लोकपूरण समुद्घात कहते हैं। केवली समुद्घात में कर्म प्रकृतियों की क्षपणा की प्रक्रिया श्वेताम्बर के अनुसार - केवली भगवान् के वेदनीय की दो - साता वेदनीय और असाता वेदनीय, नामकर्म की 80 प्रकृतियाँ (शुभ नामकर्म की 52 और अशुभ नामकर्म की 28), गोत्र कर्म की दो-उच्च गोत्र और नीच गोत्र और आयु की एक-मनुष्यायु इन चार कर्मों की कुल 85 प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं। केवली समुद्घात के प्रथम समय में केवली भगवान् अशुभ नाम कर्म की 28 प्रकृतियों, असाता वेदनीय और नीच गोत्र इन कुल 30 प्रकृतियों की स्थिति के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग (रस) के अनन्त खण्ड करते हैं और स्थिति और अनुभाग का एक-एक खण्ड बाकी रख कर शेष सभी खण्डों का क्षय करते हैं। दूसरे समय में केवली भगवान् शुभ नाम कर्म की 52, साता वेदनीय और उच्च गोत्र कुल 54 प्रकृतियों की स्थिति के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग के अनन्त खंड करते हैं। स्थिति का खण्ड स्थिति में और अनुभाग का खण्ड अनुभाग में मिलाते हैं और एक खण्ड स्थिति का और एक खण्ड अनुभाग को शेष रख कर बाकी सभी खण्ड दूसरे समय में क्षय करते हैं। तीसरे समय में स्थिति के एक खण्ड के असंख्यात खण्ड करते हैं और अनुभाग के एक खण्ड के अनन्त खण्ड करते हैं और स्थिति और अनुभाग का एक एक खण्ड शेष रख कर बाकी सभी खण्ड तीसरे समय में क्षय कर देते हैं। इसी तरह चौथें समय और पांचवें समय में भी समझना चाहिए। छठे 176. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापना सूत्र, भाग 3, पृ. 292 177. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 955, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3052 से 3053 178. षटखण्डागम, पु. 4, 1.3.2, पृ. 28

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