Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 481
________________ [456] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अधिक प्राचीन है। जीवाभिगमसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में सिद्ध के पंद्रह प्रकारों का उल्लेख मिलता है उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में सिद्धों के वर्णन में क्षेत्रादि बारह द्वारों से विस्तृत वर्णन किया है।” इससे इन भेदों की प्राचीनता सिद्ध होती है। इन पन्द्रह भेदों का उल्लेख पूर्व मनुष्य भव के अनुसार है। इससे इन भेदों को भवस्थ केवली के अंतिम समय के साथ जोड़ सकते हैं, क्योंकि सिद्धत्व में तरतमभाव नहीं है अर्थात् ये पंद्रह भेद सिद्ध होने की पूर्व अवस्था के अनुसार हैं। 1. तीर्थसिद्ध - जो चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ में प्रव्रजित होकर मुक्त होते हैं, वे तीर्थसिद्ध हैं, जैसे जम्बूस्वामी आदि । मलयगिरि ने तीर्थ के चार अर्थ किये हैं - १. जिससे संसार समुद्र तिरा जाय उस धर्म को, २. जीवादि पदार्थों की सम्यक् प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के वचन को, ३. प्रथम गणधर को ४. तथा तीर्थाधार संघ को भी तीर्थ कहा है। जो संघ की विद्यमानता में सिद्ध हुए वे 'तीर्थ सिद्ध' हैं। तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थंकर होते हैं । तीर्थ, चतुर्विध श्री संघ का पवित्र नाम है, चतुर्विध संघ को भाव तीर्थ भी कहते हैं। यहां द्रव्य तीर्थ का निषेध है। तीर्थंकर भगवान शत्रुंजय, सम्मेतशिखर आदि द्रव्य तीर्थ की स्थापना करने वाले नहीं होते हैं । भगवतीसूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख है। व्याख्याकारों ने ‘पढमगणहरो वा' कहकर प्रथम गणधर को भी तीर्थ कह दिया है। इसका कारण प्रथम गणधर चतुर्विध तीर्थ में प्रमुख होते हैं। प्रमुख में सभी का समावेश हो जाता है। ‘हस्तिपदे सर्वपादाः निमग्नाः ' इस सूक्ति के अनुसार ही सम्भवतः प्रथम गणधर को भी तीर्थ कहा जाता है। 2. अतीर्थसिद्ध - चातुर्वर्ण्य श्रमणसंघ के बिना भी जो मुक्त होता है, वह अतीर्थसिद्ध है। चूर्णिकार ने मरुदेवी का उदाहरण दिया है ।" हरिभद्रसूरि ने बताया है - जो जातिस्मरण के द्वारा मोक्षमार्ग को प्राप्त कर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं ।" चूर्णिकार ने जातिस्मरण का उल्लेख स्वयंबुद्ध के प्रसंग में किया है। स्वयंबुद्ध सिद्ध दो प्रकार के होते हैं - तीर्थंकर और तीर्थंकर से भिन्न । प्रस्तुत प्रसंग में तीर्थंकर से भिन्न विवक्षित है। मलयगिरि ने इन दोनों का समावेश कर वर्णन किया है कि जो तीर्थ स्थापन करने से पहले या तीर्थ विच्छेद के पश्चात् जाति स्मरणादि से बोध प्राप्त कर सिद्ध होते हैं, उन्हें अतीर्थसिद्ध कहते है, जैसे मरूदेवी माता तीर्थ की स्थापना होने से पूर्व ही सिद्ध हुई । भगवान् सुविधिनाथजी से लेकर शांतिनाथजी तक आठ तीर्थंकरों के बीच, कालान्तर में तीर्थ व्यच्छेद हुआ था । उस समय जातिस्मरण आदि ज्ञान उत्पन्न होने पर, फिर केवली होकर जो सिद्ध हुए हैं, उन्हें अतीर्थसिद्ध कहते हैं।” उमास्वाति के अनुसार अतीर्थंकर सिद्ध कभी तीर्थ प्रवर्तित हों तब भी होते हैं और तीर्थ प्रवर्तित नहीं हो तब भी होते हैं। 100 - 3. तीर्थंकर सिद्ध - जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है और जो तीर्थंकर अवस्था में मुक्त होते हैं, वे ऋषभ आदि तीर्थंकर सिद्ध हैं। 01 जो तीर्थंकर नाम-कर्म के उदय वाले हैं, चौंतीस 90. युवाचार्य मधुकरमुनि, स्थानांगसूत्र स्थान 1, पृ. 17 91. क्षेत्र - काल-गति-लिंग-तीर्थ - चारित्र - प्रत्येक-बुद्धबोधित - ज्ञानाऽवगाहनाऽन्तर - सङ्ख्याऽल्पबहुत्वतः साध्याः । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम सूत्रम् 10.7 93. नंदीचूर्णि पृ. 44 92. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 45 94. ‘तित्थसिद्धा' इत्यादि तीर्यते संसारसागरोऽनेनति तीर्थ-यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकपरमगुरुप्रणीतं प्रचवनं, 96. नंदीचूर्णि पृ.44 98. नंदीचूर्णि पृ. 44 100 तत्त्वार्थभाष्य 10.7 तच्च निराधारं न भवतीति कृत्वा संघ, प्रथमगणधरो वा वेदितव्यं । - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 130 95. तित्थं भन्ते! तित्थं, तित्थगरे तित्थं ? गोयमा ! अरहा ताव नियमा तित्थकरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णो समणसंघो, समणा समणीओ सावगा साविगाओ। युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र भाग 4, श. 20, उ. 8, पृ. 64 97. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 45 99. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 130 101. नंदीचूर्णि पृ. 44

Loading...

Page Navigation
1 ... 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548