Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 483
________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध सिद्धों में अन्तर - दोनों प्रकार के सिद्धों में पांच अन्तर हैं, यथा १. बोधि - स्वयंबुद्ध बाह्य कारण के बिना बोधि को प्राप्त करते हैं। जबकि प्रत्येकबुद्ध वृषभादि कारणों की मदद से बोधि प्राप्त करते हैं । २. श्रुत - स्वयंबुद्ध को पूर्व में सीखा हुआ श्रुतस्मरण हो भी सकता और नहीं भी । लेकिन प्रत्येकबुद्ध को पूर्व के श्रुत का स्मरण नियम से होता है, जो कि जघन्य ग्यारह अंग और उत्कृष्ट न्यून दस पूर्व होता है । ३. लिंग - स्वयंबुद्ध को पूर्वकाल के श्रुत का स्मरण होने पर उन्हें देव लिंग देते हैं अथवा गुरु के पास जाकर के भी ग्रहण कर सकते हैं। जबकि प्रत्येकबुद्ध को लिंग देव ही देते हैं और कुछ बिना लिंग के भी होते हैं । ४. विहार - स्वयंबुद्ध को पूर्वकाल का श्रुत स्मरण हो जाने पर वे एकलविहारी हो सकते हैं अथवा गच्छ में भी रह सकते हैं। लेकिन जिनको पूर्व में सीखा हुआ श्रुतस्मरण में नहीं आता है तो वे नियम से गच्छ में ही रहते हैं। जबकि प्रत्येकबुद्ध नियम से एकलविहारी होते हैं । ५. उपधि - स्वयंबुद्ध के चार प्रकार की उपधि होती है। जबकि प्रत्येकबुद्ध के जघन्यतः दो प्रकार की और उत्कृष्टतः नौ प्रकार की उपधि होती है। [458] उमास्वाति ने स्वयंबुद्धादि तीन प्रकार का वर्गीकरण दूसरे प्रकार से किया है । बुद्ध के दो प्रकार हैं- स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित । स्वयंबुद्ध के दो प्रकार हैं- तीर्थकर और प्रत्येकबुद्ध । बुद्धबोधित के दो प्रकार है परबोधक और स्वेष्टकारी। इस वर्गीकरण में प्रत्येकबुद्ध और स्वयंबुद्ध का एक ही प्रकार है। प्रत्येकबुद्ध और बुद्धबोधित जीवों की संख्या उत्तरोत्तर बढती है | 10 - 8. स्त्रीलिंग सिद्ध - स्त्री का लिंग अथवा चिह्न स्त्री का उपलक्षण है। लिंग के तीन अर्थ हैं १. वेद (कामविकार), २. शरीर रचना, ३. नेपथ्य ( वेशभूषा)। यहां लिंग का अर्थ शरीर रचना है। क्षीणवेदी जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि में अवश्य सिद्ध होता है । नेपथ्य का कोई विषय नहीं है। इसलिए यहाँ वेद और नेपथ्य का प्रसंग नहीं है । शरीर का आकार विशेष नियम से वेदमोहनीय और शरीर नामकर्म के उदय से होता है। जो स्त्री की शरीर रचना में युक्त होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध है।"" स्त्रियों की मुक्ति-प्राप्ति के सम्बन्ध में जैन परम्परा में मतभेद है । दिगम्बर परम्परा में स्त्रियों की मुक्ति का अभाव अंगीकृत है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्त्रियों की मुक्ति को स्वीकार किया गया है । स्त्री का मोक्ष नहीं मानने के लिए दिगम्बर परम्परा में निम्न तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं 112 १. स्त्रीत्व का त्रिरत्न के साथ में विरोध है । सम्मूच्छिम जीव स्वभाव से ही सम्यक् दर्शन आदि की आराधना नहीं कर सकते, अतः उनका निर्वाण असंभव है। 13 २. स्त्रियां हीन सत्त्व वाली होने से सातवीं नारकी में नहीं जा सकती हैं। 114 ३. स्त्रियों का वस्त्र परिग्रह मोक्ष में बाधक है, क्योंकि स्त्रियाँ नग्न नहीं रह सकती हैं, उन्हें वस्त्र रखना होता है और वह वस्त्र उनका परिग्रह है ।115 ४. वस्त्र में जीव-जन्तु की उत्पत्ति होने से हिंसा होती है। ५. वह पुरुषों की अपेक्षा अवन्द्य है । 116 ६. उनमें माया और मोह का बाहुल्य होता है । ७. इनका हीन सत्त्व है। इससे इनको निवार्ण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। - - श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने उक्त युक्ति का निम्न प्रकार से समाधान दिया है १. निर्वाण के कारणभूत तीन रत्न स्त्रियों में हो सकते हैं, क्योंकि स्त्रियों में रत्नत्रय का अभाव 110 तत्त्वार्थभाष्य, भाग 2, 10.7 पृ. 309 112. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग 2, पृ. 865-878 114. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग 2, पृ. 259 116. पुरुषैरवन्द्यत्वस्य गणधरैर्व्यभिचारः । न्यायकुमुदचन्द्र, भाग 2, पृ. 875 111. नंदीचूर्णि पृ. 45 113. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग 2, पृ. 268 115. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग 2, पृ. 265

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