Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 477
________________ [452] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन कि मुक्त जीव में ज्ञान नहीं होता । ° लेकिन यह दोनों मत सही नहीं है । इन दोनों मतों का निराकरण जैनदर्शन में वर्णित केवलज्ञान के उपर्युक्त दोनों भेदों से हो जाता है । भवस्थ केवलज्ञान से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। सिद्ध केवलज्ञान इस बात का सूचक है कि मुक्त आत्मा में ज्ञान (केवलज्ञान) विद्यमान रहता है। विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान के स्वामी आदि के सम्बन्ध में विशेष वर्णन प्राप्त नहीं होता है। केवली का लक्षण जो केवलज्ञान का स्वामी होता है, उसे केवली कहते हैं। आवश्यकनियुक्ति में इसका लक्षण स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो पंचास्तिकायात्मक लोक को सम्पूर्ण रूप से जानते देखते हैं, वे केवली हैं। यहाँ केवल शब्द के दो अर्थ विवक्षित हैं, एक और सम्पूर्ण जिनके एक ज्ञान (केवलज्ञान) और एक चारित्र ( यथाख्यात) होता है अथवा जिनके सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण चारित्र होता है, वे केवली कहलाते हैं।" 2. षट्खण्डागम के अनुसार 2 जिसके केवलज्ञान पाया जाता है, उन्हें केवली कहते हैं । 3. सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि जिनका ज्ञान आवरण रहित है वे केवली कहलाते हैं। 3 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार ज्ञानावरण का अत्यंत क्षय हो जाने पर जिनके स्वाभाविक अनंतज्ञान प्रकट हो गया है तथा जिनका ज्ञान इन्द्रिय कालक्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से परे है और परिपूर्ण है, वे केवली हैं।" 1. भवस्थ केवलज्ञान यहाँ भव का अर्थ मनुष्यभव है, क्योंकि कर्मों का क्षय मनुष्यभव में ही होता है। अतः मनुष्यभव में रहे हुए चार घातिकर्म रहित जीवों को जो केवलज्ञान होता है, ऐसे केवली को भवस्थ केवली कहते अथवा आयुपूर्वक मनुष्य देह में अविस्थत केवलज्ञान को भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं। हैं नंदीचूर्णि के अनुसार मनुष्य भव में स्थित मनुष्य का केवलज्ञान भवस्थ केवलज्ञान है " आवश्यकचूर्णि के अनुसार भवस्थ केवलज्ञान वह है, जो मनुष्य भव में अवस्थित व्यक्ति के ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकमों के क्षीण होने पर उत्पन्न होता है जब तक शेष चार अघाति - कर्म क्षीण नहीं होते, तब तक वह भवस्थ केवलज्ञान कहलाता है। 7 भवस्थ केवलज्ञान के भेद भवस्थ केवलज्ञान दो प्रकार का होता है 1. सयोगी भवस्थ केवलज्ञान, 2. अयोगी भवस्थ केवलज्ञान योग – वीर्यात्मा अर्थात् आत्मिक शक्ति से आत्म- प्रदेशों में स्पंदन होने से मन-वचन और काया में जो व्यापार होता है, उसको योग कहते हैं तथा योग निरोध होने से जीव अयोगी कहलाता है। - 59. मीमांसा दर्शनम्, श्लोक 110 से 143 61. आवश्यक निर्युक्ति गाथा 1079 63. सर्वार्थसिद्धि, 9.38 पृ. 358 65. हरिभद्रीय पृ. 34, तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्योऽन्यत्र केललोत्पादाभावात् भवे तिष्ठन्तीति भवस्थाः । 60. तर्कभाषा पृ. 194 62. षट्खण्डागम, पु. 1, 1.1.22, पृ. 192 64. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 6.13.1, पृ. 261 मलयगिरि, वृत्ति, पृ. 112 67. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 74 66. नंदी चूर्ण, पृ. 33 68. भवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा- सजोगिभवत्थकेवलणाणं च अजोगिभवत्थकेवलणाणं च । पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 87

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