Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 476
________________ सप्तम अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में केवलज्ञान [451] 15. असहाय असहाय का अर्थ है कि इसमें इन्द्रिय आदि की तथा मति आदि ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती है, इसलिए केवलज्ञान पर की सहायता से रहित होने की वजह से असहाय माना गया है। जैसे कि मणि पर लगे हुए मल की न्यूनाधिकता और विचित्रता से मणि के प्रकाश में न्यूनाधिकता और विचित्रता होती है, यदि मणि पर लगा हुआ मल हट हो जाये, तो मणि के प्रकाश में होने वाली न्यूनाधिकता और विचित्रता मिटकर एक पूर्णता उत्पन्न हो जाती है । उसी प्रकार आत्मा पर जब तक ज्ञानावरणीयकर्म का मल रहता है तब तक उसका न्यूनाधिक और विचित्र क्षयोपशम होता है, तभी तक आत्मा में न्यूनाधिक क्षयोपशम वाले मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान रहते हैं । परन्तु जैसे ही आत्मा पर लगा हुआ ज्ञानावरणीय कर्म-मल नष्ट होता है, वैसे ही आत्मा में एक पूर्ण-केवल ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वही रहता है । यह केवलज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश और मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित होने से असहाय है। प्रश्न - केवलज्ञान आत्मा की सहायता से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते हैं। उत्तर नहीं, क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं होती है, इसलिए इसे असहाय कहने में आपत्ति नहीं है। प्रश्न - केवलज्ञान अर्थ की सहायता लेकर प्रवृत्त होता है, इसलिए इसे केवल (असहाय) नहीं कह सकते हैं। उत्तर नहीं, क्योंकि नष्ट हुए अतीत पदार्थों में और उत्पन्न नहीं हुए अनागत पदार्थों में भी केवलज्ञान की प्रवृत्ति पायी जाती है, इसलिए यह अर्थ की सहायता से होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता 54 - — - प्रश्न - प्रत्यक्ष अवधि व मन:पर्यय ज्ञान भी इन्द्रियादि को अपेक्षा न करके केवल आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होते हैं इसलिए उनको भी केवलज्ञान क्यों नहीं कहते हो ? उत्तर - जिसने सर्व ज्ञानावरणीय कर्म का नाश किया है, ऐसे केवलज्ञान को ही 'केवलज्ञान' कहना रूढ है, अन्य ज्ञानों में 'केवल' शब्द की रूढ़ि नहीं है। केवलज्ञान के स्वामी अथवा प्रकार केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है, यह ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने पर ही उत्पन्न होता है । मति आदि चार ज्ञानों से युक्त एक ज्ञानी से दूसरे ज्ञानी के ज्ञान में षट्स्थानपतित का अन्तर होता है।" लेकिन एक केवलज्ञानी से दूसरे केवलज्ञानी के ज्ञान में कोई अन्तर नहीं होता है, अतः मति आदि चार ज्ञान की तरह केवलज्ञान का कोई भी भेद नहीं। यहाँ पर जो केवलज्ञान के भेद ( भवस्थ आदि) बताये हैं, वह स्वामी, भवस्थ और सिद्ध की अपेक्षा बताये हैं। अतः केवलज्ञान एक ही प्रकार का होता हैं, परंतु स्वामी की अपेक्षा से इसके दो प्रकार होते हैं १. भवस्थ केवलज्ञान तथा २ सिद्ध केवलज्ञान 17 भवस्थ केवलज्ञान - मनुष्य भव में रहते हुए चार घाति-कर्म नष्ट होने से उत्पन्न होने वाला ज्ञान भवस्थ केवलज्ञान है। सिद्ध केवलज्ञान- जिन्होंने अष्ट कर्मों को क्षय कर सिद्धि प्राप्त करली, ऐसे केवली का केवलज्ञान । दिगम्बर परम्परा में भवस्थ केवलज्ञान को तद्भवस्थ केवलज्ञान कहा गया है मीमांसक दर्शन का अभिमत है कि मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता ।” वैशेषिक दर्शन का अभिमत है 54. कसायपाहुडं, पु. 1 गाथा 1, पृ. 19 55. भगवती आराधना, गाथा 50, पृ. 95 56. प्रज्ञापना, पद 5 ( जीवपर्याय) 57. केवलणाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा भवत्थकेवलणाणं च सिद्धकेवलणाणं च । पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 86 58. कसायपाहुडं, पु. 1 गाथा 16, पृ. 311

Loading...

Page Navigation
1 ... 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548