Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान
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मनुष्यक्षेत्र 45 लाख योजन
45 लाख यो.
बन सकती है। इसलिए मानुषोत्तरशैल के उल्लेख को उपलक्षण तरीके से स्वीकार करके मन:पर्याय की क्षेत्र मर्यादा 45 लाख योजन मानना युक्ति संगत है।189
उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि 45 लाख योजन जो मनःपर्यवज्ञान का क्षेत्र है उस क्षेत्र के भीतर स्थित होकर चिन्तन करने वाले जीवों के मनोभाव (मनोवर्गणा) यदि उस क्षेत्र के भीतर होते हैं तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता है।
गोम्मटसार के अनुसार - ऋजुमति का विषयभूत जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व अर्थात् दोतीन कोस है और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन पृथक्त्व अर्थात् सात-आठ योजन है। विपुलमति का विषय भूत जघन्य क्षेत्र योजन पृथक्त्व अर्थात् आठ-नौ योजन है और उत्कृष्टक्षेत्र मनुष्यलोक है।।
विपुलमति का विषय उत्कृष्ट क्षेत्र का कथन करते हुए जो मनुष्यक्षेत्र कहा है, वह मनुष्यक्षेत्र विष्कम्भ का निश्चायक है, गोलाई का नहीं अर्थात् मनुष्यक्षेत्र . जो गोलाकार रूप है, उसका यहाँ ग्रहण नहीं करके पैंतालीस श्वेताम्बर मान्यता
मनुष्यक्षेत्र लाख योजन प्रमाण चौकोर घनप्रतर रूप ग्रहण करना चाहिए,
'दिगम्बर मान्यतऔर यही मन:पर्यवज्ञान का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र है। इस क्षेत्र
मनुष्यक्षेत्र 45 लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है, किन्तु ऊंचाई पैंतालीस लाख से कम की होती है। इतना क्षेत्र लेने का कारण यह है कि मानुषोत्तर पर्वत के बाहर चारों कोनों में स्थित देवों और तिर्यंचों के द्वारा चिन्तित अर्थ को भी उत्कृष्ट विपुलमति जानता है।190
धवलाटीका के अनुसार जो उत्कृष्ट मन:पर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत और मेरुपर्वत के मध्य में मेरुपर्वत से जितनी दूर होगा उस ओर उसी क्रम से उसका क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत के बाहर बढ़ जायेगा और दूसरी ओर मानुषोत्तर पर्वत का क्षेत्र उतना ही दूर रह जायेगा। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में मनःपर्यवज्ञान के क्षेत्र का कथन है।
श्वेताम्बर परम्परा में मानुषोत्तर पर्वत को गोलाकार के रूप में ही ग्रहण किया है। क्योंकि नंदीसूत्र में 'अंतोमणुस्सखित्ते' बताया है। यदि घन आदि रूप क्षेत्र बताना होता तो आगमकार इसका स्पष्ट उल्लेख कर देते साथ ही अन्य किसी भी श्वेताम्बर टीका साहित्य में इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।
समीक्षा - नंदीसूत्र में 'अंतोमणुस्सखित्ते' का स्पष्ट उल्लेख है, साथ ही षटखण्डागम मूल में भी 'माणुसुत्तरसेलस्य अब्भंतरादो' शब्द दिया है। जब नंदीसूत्र और षटखण्डागम के मूल पाठ में मनुष्यक्षेत्र के अन्दर के क्षेत्र का स्पष्ट उल्लेख है तो भी वीरसेनाचार्य ने मनुषोत्तरशैल के स्पष्ट उल्लेख को उपलक्षण से ग्रहण करना बताया है, लेकिन उपक्षलण कैसे समझना इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। इसलिए यह उचित प्रतीत नहीं होता है। अतः श्वेताम्बर मान्यतानुसार मन:पर्यवज्ञानी गोलाकार मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए या आए हुए और जो ऊंचे और नीचे क्षेत्र की अपेक्षा कुल 1900 योजन क्षेत्र में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों का जानता है, यही मक ज्यादा उचित प्रतीत होता है।
189. तेसिमहिप्पाएण लोगंतट्ठियवरथा वि पच्चकखो।.... पणदालीसजोयणलक्खब्भंतरे दूठाइदूण चितयंतजीवेहि चिंतिजमाणं दव्वं
जदि मणपज्जवणाणपहाए ओट्ठद्धखेत्त होदि तो जाणादि.... । धवलाटीका, पृ. 13, सूत्र 5.5.78, पृ. 343-44 190. गोम्मसार, जीवकांड, गाथा 455-456, पृ. 673