Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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षष्ठ अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में मनः पर्यवज्ञान
काल, कोई संख्यातवें गुणा अधिक काल और कोई असंख्यातवें गुणा अधिक काल जानते हैं। भगवती सूत्र में भी क्षेत्र प्रमाण का इसी प्रकार वर्णन किया गया है। 195 यहाँ पर यह विशेष है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग के बाद मन के पुद्गल इतने क्षीण हो जाते हैं कि मनः पर्यवज्ञानी आगे की पर्यार्यो को नहीं जान सकते हैं।
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प्रश्न - मनःपर्यवज्ञानी साक्षात् वर्तमान की पर्याय को जानकर भूत और भविष्य की पर्यायों को अनुमान से जानते हैं अथवा मात्र भूत और भविष्य की ही पर्याय को जानते हैं, क्योंकि वर्तमान की पर्याय तो एक ही समय की होती है ।
उत्तर - जिस प्रकार वचन योग की स्थिति एक समय की होते हुए भी शब्द रूप में आवलिका के असंख्यातवें भाग तक एवं प्रवाह रूप से अन्तर्मुहूर्त्त तक रहता हैं, वैसे ही मनोयोग का प्रवाह भी अन्तर्मुहूर्त्त तक प्रवाहित होता रहता है । मनः पर्यवज्ञानी उन्हीं के द्रव्यों को पकड़कर चिंतन को जान लेते हैं। जैसे कि हम भी शब्दों से भावों को जान लेते हैं । मनः पर्यवज्ञानी उस चिंतन से उन मनोद्रव्य की पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी भूत, भविष्य की पर्यायों को जान लेते हैं । षट्खण्डागम के अनुसार ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानी जघन्य रूप से दो या तीन भव को जानता है । इसका अभिप्राय यह कि यदि वर्त्तमान भव को छोड़ दिया जाये तो दो भवों को तथा वर्तमान भव सहित तीन भवों को और उत्कृष्ट वर्त्तमान भव के साथ आठ भवों को और वर्त्तमान भव के बिना सात भवों को जानता है।
विपुलमति मन:पर्यवज्ञान काल की अपेक्षा जघन्य रूप से सात-आठ भव और उत्कृष्ट रूप से असंख्यात भवों को प्रत्यक्ष जानता है। % कषायपाहुड, महाबंध षट्खण्डागम एवं गोम्मटसार में भी इसी प्रकार काल का प्रमाण निर्देश किया गया है। 197
प्रश्न -
• नंदीसूत्र में जो मनः पर्यवज्ञान का उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवें भाग जितना बताया है, इतने लम्बे काल में किसी जीव ने असंज्ञी का भव कर लिया, तो मनः पर्यवज्ञानी उस जीव की कितने काल तक की मन की पर्यायों को जानेगा ?
उत्तर - मनः पर्यवज्ञानी तो मनोवर्गणा को ही देखता है। चिंतन वाले व्यक्ति को नहीं देखता है, इसलिए बीच में असंज्ञी के भव के आने का प्रश्न ही नहीं रहता है। संज्ञी के भव में ही व्यक्ति मन से सोचता है, असंज्ञी के भव में तो मन ही नहीं होता है । अतः मनः पर्यवज्ञानी अढ़ाई द्वीप में रहे हुई पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल तक की चिंतन की गई मन की पर्यायों को जान सकता I संज्ञी के भव में भी व्यक्ति निरंतर मन से सोचता नहीं। जब- जब मन से सोचता है, उन मन की पर्यायों को ही मनः पर्यवज्ञानी जानता है ।
मनः पर्यवज्ञान का भाव
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मनः पर्यवज्ञानी सभी पर्याय राशि के अनन्तवें भाग जितने रूपादि की उन अनंत पर्यायों को जानते हैं जिनका चिन्तन पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों ने किया है। लेकिन विशेषावश्यकभाष्य का मन्तव्य है कि मनः पर्यवज्ञानी भाव मन की पर्याय को नहीं जानते हैं । इसका कारण यह है कि भाव मन तो ज्ञान रूप है और ज्ञान अमूर्त है। अमूर्त को छद्मस्थ जान नहीं सकता है। इसलिए चिंतानुगत मनोद्रव्य की पर्यायों को जानते हैं और चिन्तनीय बाह्य घटादि वस्तुओं की पर्याय को नहीं जानते हैं, लेकिन द्रव्य मन से विचार करके बाह्य घटादि पर्यार्यों को अनुमान से 195. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवतीसूत्र, पृ. 287 196. षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.74-75, पृ. 338, 342 197. कषायपाहुड, पृ. 19, महाबंध भाग 1, पृ. 32, षट्खण्डागम पु. 9 पृ. 68-69, गोम्मटसार, जीवकांड, गाथा 457, पृ. 674