Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [389] कालवृद्धि के साथ द्रव्य, क्षेत्र और भाव की वृद्धि भी निश्चित होती है। क्षेत्र की वृद्धि में काल की वृद्धि की भजना है जबकि द्रव्य और पर्याय की वृद्धि होती हैं तथा द्रव्य और पर्याय की वृद्धि में क्षेत्र और काल की भजना है, क्योंकि काल आदि परस्पर सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होते हैं। अवधिज्ञानी का विषय रूपी पुद्गल हैं, यथा औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, भाषावर्गणा, आनपान (श्वासोच्छ्वास) वर्गणा, मनोवर्गणा, कार्मणशरीर ये आठ वर्गणाएं होती है, उनमें से भी तैजस और भाषा वर्गणाओं के बीच में रही हुई अयोग्य वर्गणाओं को अर्थात् जो द्रव्य तैजस और भाषा के योग्य नहीं ऐसे गुरुलघु और अगुरुलघु पर्याययुक्त द्रव्य को वह अवधिज्ञानी जानता है। वर्णणा का स्वरूप समझाने के लिए जिनभद्रगणि ने कुचिकर्ण का उदाहरण दिया है। समान जाति के पुद्गलों के समूह को वर्गणा कहते हैं। औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस के द्रव्य स्थूल और गुरुलघु (आठ स्पर्शवाला) तथा कार्मण, भाषा, श्वासोच्छ्वास और मनोद्रव्य सूक्ष्म और अगुरुलघु (चार स्पर्श वाला) परिणाम वाले होते हैं। वर्गणा मुख्य रूप से चार प्रकार की होती है - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इससे द्रव्यादि के औदारिक आदि आठ भेद होते हैं। सभी वर्गणाओं में पहले अग्रहण वर्गणा फिर ग्रहण वर्गणा और पुनः अग्रहण वर्गणा होती है। विशेषावश्यकभाष्य में औदारिक आदि आठ वर्गणाओं के बाद ध्रुवादि चौदह वर्गणाओं के स्वरूप का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार कुल वर्गणाएं 22 (जीव के ग्रहण योग्य 8 और जीव के अग्रहणयोग्य 14) होती हैं। पंचसंग्रह में औदारिक आदि आठ वर्गणाओं के बाद यथाक्रम से ध्रुवाचित्त, अध्रुवाचित्त, शून्य वर्गणा, प्रत्येकशरीर, ध्रुवशून्य, बादरनिगोद, ध्रुवशून्य, सूक्ष्मनिगोद, ध्रुवशून्य, महास्कंधवर्गणा है, इस प्रकार कुल अठारह वर्गणाओं का वर्णन पंचसंग्रह में मिलता है। गोम्मटसार में अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनंताणुवर्गणा, आहारवर्गणा इत्यादि 23 प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन गोम्मटसार में प्राप्त होता है। विभिन्न आगम ग्रंथों में 42 प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन प्राप्त होता है। अवधिज्ञान के विषय की अपेक्षा से मुख्य रूप से तीन भेद होते हैं - देशावधि, परमावधि और सर्वावधि। परमावधिज्ञानी सर्वोत्कृष्ट सभी रूपी पदार्थों को जानता और देखता है। परमावधि का अधिकारी मनुष्य ही होता है। इसी प्रकार तिर्यंच, नरक और देवों के अवधिज्ञान से सम्बन्धित द्रव्य, क्षेत्र एवं काल का विस्तार से उल्लेख किया गाया है। 1. तिर्यंच अवधिज्ञानी का उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यातद्वीप समुद्र और काल से असंख्यातवर्ष प्रमाण होता है। 2. नारकी अवधिज्ञानी जघन्य एक गाऊ (कोस) और उत्कृष्ट चार गाऊ (एक योजन) क्षेत्र को, तथा काल से अन्तर्मुहूर्त के भूत-भविष्य का जानता और देखता है। 3. देवता में भवनपति का जघन्य क्षेत्र 25 योजन उत्कृष्ट असंख्यात योजन, वाणव्यंतर का जघन्य क्षेत्र 25 योजन उत्कृष्ट संख्यात योजन है तथा ज्योतिषी जघन्य-उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र को जानता और देखता है। वैमानिक का जघन्य क्षेत्र जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट संभिन्न सम्पूर्ण लोक नाड़ी जितना होता है। जैसेकि पहले देवलोक से नवमें नवग्रैवेयक तक के देव तिरछे रूप में असंख्यात द्वीप-समुद्रों तक और ऊंचे अपने-अपने विमानों की ध्वजा पताका तक एवं पांच अनुत्तर विमान के देव चौदह रज्जु प्रमाण लोक को देखते हैं।