Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [410] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन और जो मोक्ष के उपाय एवं बंध के हेतुओं को समान मानता हो तथा जीवादि पदार्थों पर न तो श्रद्धा करता हो और न ही अश्रद्धा करता हो, ऐसी मिश्रित श्रद्धा वाला जीव मिश्रदृष्टि कहलाता है। यथा - कोई व्यक्ति रंग की एकरूपता देखकर सोने व पीतल में भेद नहीं कर पाता है। उसी प्रकार मिश्रदृष्टि जीव सत् एवं असत् में भेद नहीं कर पाता है। 4 7. संयत मनःपर्यवज्ञान संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। सम्यग्दृष्टि तीन प्रकार के होते हैं - 1. संयत - जो सर्वविरत है, तथा चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से जिन्हें सर्वविरति चारित्र की प्राप्ति हो गई है, वे संयत कहलाते हैं। 2. असंयत - जो चतुर्थगुणस्थानवर्ती हो, जिनके अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से देशविरति न हो उन्हें अविरत या असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। 3. संयतासंयत - संयतासंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य श्रावक होते हैं। श्रावकों को हिंसा आदि पांच आस्रवों का अंश रूप से त्याग होता है, सम्पूर्ण रूप से नहीं। (अ) इन तीनों में से मन:पर्यवज्ञान सर्वविरति चारित्र वाले संयत मनुष्य को ही होता है, शेष दो असंयत और संयतासंयत मनुष्य को नहीं होता है। क्योंकि मनःपर्यवज्ञानावरण का क्षयोपशम चारित्र अपेक्षित है, इसलिए संयत को ही मन:पर्यवज्ञान होता है, असंयत और संयतासंयत को नहीं होता है। मन:पर्यवज्ञान संयत को ही क्यों होता है / कन्हैयालाल लोढ़ा के अनुसार विषय-भोगों के सुख में आबद्ध भोगी (असंयमी) जीव का मानसिक चिंतन भोगासक्ति से युक्त होता है। उसके मन में भोगों से संबंधित संकल्प-विकल्प का प्रवाह चलता रहता है। अतः वह अंतर्मुखी नहीं हो पाता अर्थात् वह मन से अलग हटकर तटस्थ हो कर नहीं जान सकता है। अतः भोगी (अंसयमी) व्यक्ति को मन:पर्यवज्ञान नहीं होता है। किन्तु जो साधक संयमी है, विषय-भोगों के सुख से विरत है, वह अंतर्मुखी हो मन की पर्यायों को मन से असंग होकर जान सकता है अर्थात् समभावपूर्वक मन की प्रवाहमान, परिवर्तनशील पर्यायों को जानना मनःपर्यवज्ञान है। (ब) 8. अप्रमत्तसंयत मनःपर्यवज्ञान प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। संयत में भी विशिष्ट प्रकार का संयत होना चाहिए उसी को मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए अप्रमत्त संयत को ही मन:पर्यवज्ञान होता है। संयत दो प्रकार के होते हैं - प्रमत्त-अप्रमत्त संयत - जिससे संयम में (चारित्र में) शिथिलता उत्पन्न हो, उसे 'प्रमाद' कहते हैं। मलयगिरि ने भी नंदीसूत्र की वृत्ति में प्रमाद की परिभाषा दी है। 1. मद्य 2. विषय 3. कषाय 4. निद्रा और 5. विकथा, ये पांच प्रमाद हैं। जो साधु, जिस समय इनमें प्रवृत्त हो, वह उस 84. युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 46 85. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 77-78 86 (अ). युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 47 86 (ब). बन्धतत्त्व, पृ. 25 87. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 78 88. मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्मेति प्रमत्ताः / - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 106