Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 436
________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मन:पर्यवज्ञान [411] समय 'प्रमत्त संयत' कहलाता है तथा जिस समय इनमें प्रवृत्त न हो, उस समय 'अप्रमत्त संयत' कहलाता है। यहाँ अप्रमत्त संयत का अर्थ-सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव समझना चाहिए। मनःपर्यायज्ञान विशिष्ट गुण के कारण उत्पन्न होता है। वैसे गुण अप्रमत्त साधु में ही हो सकते हैं, प्रमादी साधु में नहीं। नंदीचूर्णिकार ने अप्रमत्त के चार प्रकार बताये हैं - 1. जिनकल्पिक 2. परिहारविशुद्धि 3. यथालन्दक 4. प्रतिमाप्रतिपन्नक। इन चारों के परिणाम सर्वदा संयम में ही अग्रसर होते हैं। ये चारों प्रकार गच्छमुक्त साधु के हैं, लेकिन मन:पर्यवज्ञान गच्छमुक्त मुनि को ही होता है, यह एकांत नियम नहीं है। इस बात को ध्यान में रखकर चूर्णिकार ने कहा है कि गच्छवासी और गच्छमुक्त दोनों प्रकार के मुनि प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों होते हैं। उनमें अप्रमत्त मुनि को ही मन:पर्यवज्ञान होता है। अप्रमत्त होने मात्र से ही मन:पर्यवज्ञान नहीं होता है, इसके लिए नवीं शर्त भी आवश्यक है, जिसका स्वरूप निम्न प्रकार से है। 9. ऋद्धिप्राप्त संयत मन:पर्यवज्ञान ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है। अप्रमत्त संयत दो प्रकार के होते हैं - ऋद्धि प्राप्त और ऋद्धि अप्राप्त। ऋद्धि प्राप्त, ऋद्धि अप्राप्त - धर्माचरण के द्वारा निर्जरा होकर या पुण्योदय होकर जो विशिष्ट शक्ति-लब्धि मिलती है, उसे यहाँ 'ऋद्धि' कहा गया है। अवधिज्ञान, पूर्वगतज्ञान, आहारक लब्धि, तेजोलेश्या, विद्याचारण, जंघाचारण आदि ऐसी 28 लब्धियाँ हैं। उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व अर्थ के प्रतिपादक विशिष्ट श्रुत में प्रवेश करते हुए उससे उत्पन्न तीव्र, तीव्रतर शुभ भावनाओं से ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। जिन्हें ये ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं, वे 'ऋद्धि प्राप्त संयत' हैं तथा जिन्हें प्राप्त नहीं हैं, वे 'ऋद्धि अप्राप्त संयत' कहलाते हैं। अथवा जो अप्रमत्त आत्मार्थी मुनि अतिशायिनी बुद्धि से सम्पन्न हो और जो आहारक आदि लब्धि (ऋद्धि) से सम्पन्न हो उसे ऋद्धि प्राप्त कहते हैं। मुनि अतिशायिनी बुद्धि से सम्पन्न हो इसके लिए अतिशायिनी बुद्धि तीन प्रकार की होती है- 1. कोष्ठबुद्धि, 2. पदानुसारीबुद्धि और 3. बीजबुद्धि, इनका वर्णन शेष लब्धियों के साथ ही अवधिज्ञान के ऋद्धि द्वार के अन्तर्गत किया गया है। इसलिए विशेष वर्णन वहाँ द्रष्टव्य है। यहाँ मन:पर्यायज्ञान के साथ संभव अवधिज्ञान-लब्धि, पूर्वधर-लब्धि, गणधर-लब्धि, औषधिलब्धि, वचन-लब्धि, चारण-लब्धि आदि लब्धियों को ही ग्रहण करना चाहिए। मन:पर्यायज्ञान, विशिष्ट विशुद्धि के कारण उत्पन्न होता है। वह विशिष्ट विशुद्धि, ऋद्धिप्राप्त संयत मनुष्य में संभव है, ऋद्धि अप्राप्त में नहीं। क्योंकि ऋद्धि, विशुद्धि से ही प्राप्त होती है। अऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत जीव जीवन के किसी भी क्षण में संयम से विचलित हो सकते हैं, किन्तु ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत जीव जीवन के किसी भी क्षण में संयम से स्खलित नहीं होता है, अतः ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त संयत भी दो प्रकार के कहे हैं - 1. विशिष्ट ऋद्धि प्राप्त 2. सामान्य 89. अप्पमत्तसंजता जिणकप्पिया परिहारविसुद्धिया अहालंदिया पडिमापडिवण्णगा य। - नंदीचूर्णि पृ. 37 90. एते सततोवयोगोवउत्तत्तणतो अप्पमत्ता, गच्छवासिणो पुण पमत्ता, कण्हुइ अणुवयोगसंभवतातो। अहवा गच्छवासी णिग्गता य पमत्ता वि अपमत्ता वि भवंति परिणामवसओ। - नंदीचूर्णि पृ. 37 91. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 79 92. प्रवचनसारोद्धार द्वार 270 गाथा 1492-1508 पृ. 408-414 93. पंचम अध्याय (विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान), पृ. 384

Loading...

Page Navigation
1 ... 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548