Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 444
________________ [419] षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान ऋजुमति-विपुलमति की तुलना 1. तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने ऋजुमति और विपुलमति में अन्तर बताने के लिए विशुद्धि और अप्रतिपात विशेषण दिये हैं - 'विशुद्धयप्रतिपाताम्भां तद्विशेषः' आत्मा के साथ पहले से बंधे हुए मन:पर्यवज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर जो आत्मा की प्रसन्नता होती है, वह विशुद्धि है तथा मोहनीय कर्म का उदय नहीं होने के कारण संयमशिखर से प्रतिपात (गिरना) नहीं होना अप्रतिपात है। ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान भी विशुद्ध है, किन्तु विपुलमति मन:पर्यायज्ञान उसकी अपेक्षा विशुद्धतर है। इसी प्रकार ऋजुमति मन:पर्यायज्ञान जहाँ उत्पन्न होने के पश्चात् समाप्त होने से प्रतिपाती है, वहां विपुलमति मन:पर्याय ज्ञान एक बार प्रकट होने के पश्चात् केवलज्ञान होने के पूर्व तक समाप्त नहीं होने से अप्रतिपाती है। 34 इसप्रकार तत्त्वार्थसूत्र और नंदी आदि के टीकाकार ऐसा मानते हैं कि विपुलमति मन:पर्यवज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति के पूर्वतक विद्यमान रहता है, क्योंकि वह अप्रतिपाती है। 'अप्रतिपाती' शब्द का प्रयोग भवपर्यन्त रहने के अर्थ में भी प्राप्त होता है, क्योंकि नारकी और देवता में जो अवधिज्ञान होता है, वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान होता है। नारकी और देवता के प्रसंग में अप्रतिपाती का अर्थ भव के अंतिम समय तक रहना ही उपर्युक्त प्रतीत होता है। तत्त्वार्थराजवार्तिककार ने भी प्रतिपाती का अर्थ किया है बिजली की चमक की तरह विनाशशील बीच में ही छूटनेवाला और अप्रतिपाती का अर्थ इसका विपरीत किया है।135 आगम में तो विपुलमती मनःपर्यवज्ञान को विशुद्ध विशुद्धतर तो बताया है, लेकिन अप्रतिपाती का उल्लेख नहीं मिलता है। टीकाकारों ने उपर्युक्त जो अप्रतिपाती का अर्थ किया है, वह उचित नहीं है यहाँ भी अप्रतिपाती का अर्थ उस भव के अंतिम समय तक विद्यमान रहना ऐसा करना ही उपयुक्त है, क्योंकि जिनको विपुलमति मन:पर्यवज्ञान होता है, आवश्यक नहीं की उनको उसी भव में केवलज्ञान हो ही। इस कथन की सिद्धि प्रमाण सहित अवधिज्ञान के वर्णन में पृ. 367-368 पर कर दी गई है। जीव ऋजुमति से और साधुत्व से गिर कर नरक निगोद में भी जा सकता है।136 परन्तु विपुलमति में ऐसा नहीं होता है। उपशांतकषाय जीव का चारित्र मोहनीय के उदय से संयम शिखर छूट जाता है, जिससे प्रतिपात होता है और क्षीण कषाय जीव के पतन का कारण नहीं होने से प्रतिपात नहीं होता है।37 इस अपेक्षा से तो ऋजुमति मन:पर्यवज्ञानी उपशांत कषायी और विपुलमति मन:पर्यवज्ञानी क्षीण कषायी होते हैं। लेकिन ऐसा एकांत मानना सही नहीं है। क्योंकि भगवती सूत्र के शतक 3 उद्देशक 6 में निर्ग्रन्थ में चार ज्ञान हो सकते हैं। यहाँ निर्ग्रन्थ में 11वें और 12वें गुणस्थान वाले जीव लिए हैं। इसलिए ऋजुमति मन:पर्यवज्ञान उपशान्त और क्षीण कषायी दोनों में पाया जाता है। जिनका मानना है कि विपुलमतिज्ञानी को केवलज्ञान प्राप्त होता है, उनकी अपेक्षा से तो क्षीण कषाय में तथा जो अप्रतिपाती का अर्थ भव पर्यन्त करते हैं, उनके मत से उपाशांत और क्षीण कषायी दोनों में ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान पाया जा सकता है। 134. तत्त्वार्थसूत्र 1.25 135. प्रतिपातीति विनाशी विद्युत्प्रकाशवत्। तद्वपरीतोऽप्रतिपाती। - तत्त्वार्थराजवार्तिक सूत्र 1.22.5 पृ. 56 136. भगवती सूत्र शतक 24 उद्देशक 21 137. सवार्थसिद्धि 1.23

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