Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [401] लक्षणों का सार यही है कि सभी ग्रंथकारों, व्याख्याकारों, विश्लेषकों ने किसी न किसी रूप में मन की पर्यायों को इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की सहायता के बिना सीधे आत्मा से जानने को ही मन:पर्याय ज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। मनःपर्यवज्ञान और मतिज्ञान षट्खण्डागम के अनुसार मनःपर्यवज्ञानी अपने मन से दूसरे के मानस को जानकर उसमें संज्ञा आदि का ज्ञान करता है। इससे यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैसे मन और चक्षु आदि के संबंध से मतिज्ञान होता है, वैसे ही मन:पर्यवज्ञान में भी मन का संबंध होने पर होने वाले ज्ञान को मनो-मतिज्ञान क्यों नहीं कह सकते हैं? इस प्रश्न का समाधान यह है कि मन:पर्यवज्ञान में अपने मन की अपेक्षा तो इसलिए होती है कि मन में रहे आत्म-प्रदेशों में मन:पर्यवज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होता है। जिस प्रकार शुक्ल पक्ष की एकम-बीज का चन्द्रमा सामान्य पुरुष को नहीं दिखता है लेकिन बुद्धिमान पुरुष उसी चन्द्रमा को वृक्ष की दो शाखाओं या दो बादलों के बीच में से देख लेता है। मैंने आकाश में चन्द्र देखा है, ऐसा कहने में आता है। चन्द्रज्ञान में आकाश, शाखा या बादल सहायक मात्र होते हैं। इसलिए चन्द्रज्ञान में आकाश आदि बाह्य कारण (निमित्त) हैं, मुख्य (प्रेरक) कारण नहीं हैं। (मुख्य कारण तो आत्मा है।) इस कारण से वह मतिज्ञान नहीं कहलाता है। जिस प्रकार चक्षु में रहे हुए आत्मप्रदेशों का अवधिज्ञानावरण के रूप में क्षयोपशम होने पर चक्षु की अपेक्षा मात्र होने से अवधिज्ञान को मतिज्ञान नहीं कहते हैं, इसी प्रकार स्वयं के मन में रहे हुए आत्मप्रदेशों का मनःपर्ययावरण के क्षयोपशम के कारण वह मन:पर्यवज्ञान ही कहलाता है, मतिज्ञान नहीं, क्योंकि वह इन्द्रिय और मन से उत्पन्न नहीं हुआ है अथवा मनःपर्यवज्ञान में स्वयं या दूसरे के मन का अवलम्बन लेकर प्रत्यक्ष ज्ञान किया जाता है। इसमें मन की केवल अपेक्षा मात्र होने से मन, मन:पर्यवज्ञान का कारण नहीं हो सकता है। मानस मतिज्ञान तो मन के द्वारा ही होता है। लेकिन मनःपर्यवज्ञान में मन का सहयोग मात्र रहता है। इसलिए मनःपर्यवज्ञान में अपेक्षा मात्र से सहायक भूत हो रहे मन को मानस मतिज्ञान के समान मन:पर्यवज्ञान का मुख्य कारण नहीं मानना चाहिए। उपर्युक्त कथन का तात्पर्य है कि मतिज्ञान में तो स्वयं के मन के द्वारा विचार होता है, इसलिए वहाँ मन मुख्य साधन है। जबकि मन:पर्यवज्ञान में दूसरे के मन में स्थित मनोवर्गणा के पुद्गल देखकर वस्तु का अनुमान किया जाता है, जिसमें मन की अपेक्षा मात्र होती है। इसलिए मनःपर्यवज्ञान मतिज्ञान रूप नहीं है। इस सम्बन्ध में कन्हैयालाल लोढ़ा का मानना है कि मतिज्ञान में मन से संबधित अवग्रह, ईहा आदि होती है। मतिज्ञान में स्वयं के द्वारा संचालित मानसिक क्रियाएं, संकल्प-विकल्प, चिंतनमनन होता है। इसमें जीव मन को संचालन करने वाला, कर्ता-भोक्ता होता है। मनःपर्याय ज्ञान में साधक अपनी ओर से कुछ भी चिंतन-मनन, संकल्प-विकल्प नहीं करता है। मन से असंग व तटस्थ रहता है। 41. षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.63, 71, पृ. 330, 340 42. सर्वार्थसिद्धि 1.23, पृ. 92, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.23.4, पृ. 58 तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.23.9 से 11, पृ. 24 43. बन्ध तत्त्व, पृ. 25