Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 424
________________ षष्ठ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मनःपर्यवज्ञान [399] के भेदानुसार चिन्तन कार्य में प्रवृत्त मन भी तरह-तरह की आकृतियाँ धारण करता है। बस वे ही क्रियाएं मन की पर्याय हैं। मन और मानसिक आकार-प्रकार को प्रत्यक्ष करने की शक्ति अवधि ज्ञान में भी है, किन्तु मन की क्रियाओं के पीछे जो भाव हैं, उन्हें मनःपर्यव ज्ञान ही प्रत्यक्ष करने की शक्ति रखता है, अवधिज्ञान नहीं। दिगम्बर आचार्यों की दृष्टि में मनःपर्यवज्ञान का लक्षण 1. पूज्यपाद के अनुसार - दुसरे के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं। साहचर्य से उसका पर्यय अर्थात् परिगमन करने वाला ज्ञान मन:पर्यय कहलाता है। 2. अमृतचन्द्रसूरि के वचनानुसार “परकीय मन:स्यार्थज्ञानमन्यानपेक्षया" अन्य पदार्थों की अपेक्षा बिना दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जानना, मन:पर्याय ज्ञान है। 3. योगीन्दुदेव के अनुसार - वीर्यान्तराय और मन:पर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का उदय होने पर दूसरे के मनोगत अर्थ को जानने को मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। 4. अकलंक के मतानुसार - वीर्यान्तराय और मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशम से तदनुकूल अङ्ग-उपाङ्गों का निर्माण होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होने वाला ज्ञान मन:पर्यव कहलाता है 5. वीरसेनाचार्य के अनुसार - परकीय मन को प्राप्त हुए अर्थ का नाम मन है, और उसकी पर्यायों अर्थात् विशेषों का नाम पर्याय है, उन्हें जो जानता है, वह मन:पर्याय है। 6. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के कथनानुसार - जिसका पूर्व में चिन्तन किया था, अथवा जिसका आगामीकाल में चिन्तन करेगा, अथवा जिसका पूर्णरूपसे चिंतन नहीं किया, इत्यादि अनेक प्रकार का जो अर्थ दूसरे के मन में स्थित है, उसको जो ज्ञान जानता है, वह मनःपर्यय कहा जाता है। दूसरे के मन में स्थित अर्थ मन हुआ, उसे जो जानता है, वह मन:पर्यय है। इस ज्ञान की उत्पत्ति और प्रवृत्ति मनुष्यक्षेत्र में ही होती है, उसके बाहर नही। मनःपर्यवज्ञान के वाचक शब्दों से निष्पन्न लक्षण पज्जवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वो। तस्स व पज्जायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं। 1. मन:पर्यव - 'पज्जणं ति' 'अव गत्यादिषु' इति वचनादवनं गमनं वेदनमित्यवः, परिः सर्वतोभावे, पर्यवनं समन्तात् परिच्छेदनं पर्यवः / मनसि मनोद्रव्यसमुदाये ग्राह्ये, मनसो वा ग्राह्यस्य सन्बन्धी पर्यवो मन:पर्यवः, स चासौ ज्ञानं मन:पर्यवज्ञानम्।' अर्थात् 'अवन' (अव) का अर्थ 23. नंदीसूत्र, आत्मारामजी महाराज, पृ. 63 24. परकीय मनोगतोऽर्थो मन इत्युच्चते। साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगमने मन:पर्यय। - सर्वार्थसिद्धि, पृ. 67-68 25. तत्त्वार्थसार, प्रथम अधिकार, गाथा 28, पृ. 13 26. तत्त्वार्थवृत्ति सूत्र 1.23, पृ. 48 27. वीर्यान्तरायमन:पर्ययज्ञानावरण -क्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभोपष्टंभादात्मीयपरकीयमनःसम्बन्धेन लब्धवृत्तिरूपयोगो मनःपर्ययः / - तत्त्वार्थराजवार्तिक अ.1, सूत्र 1.23.3, पृ. 58 28. परकीयमनोगतोऽर्थों मनः मनसः पर्यायाः विशेषाः मनः पर्यया तान् जानातीति मन:पर्ययज्ञानम्। -धवलाटीका, पु. 13, पृ. 212 29. चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतयमणयभेयगयं। मणपज्जवं ति उच्चइ जं जाणइ तं खु णरलोए। - गोम्मटसार जीवकांड, गाथा 438, पृ. 664 30. विशेषावश्यकभाष्य गाथा, 83, पृ. 47 31. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 83 की बृहद्वृत्ति, पृ. 47

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