Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [398] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मनःपर्यवज्ञान का लक्षण मन:पर्यव ज्ञान का जो स्वरूप टीका, भाष्य आदि साहित्य में प्राप्त होता है, वह संक्षेप में इस प्रकार है - श्वेताम्बर आचार्यों की दृष्टि में मनःपर्यवज्ञान का लक्षण 1. आवश्यक नियुक्तिकार के अनुसार - मनःपर्यवज्ञान संज्ञीपंचेन्द्रिय के मनश्चिन्तित अर्थ को प्रकट करता है। 2. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के मन्तव्यानुसार - मन के विषय अथवा मन संबंधी पर्ययन, पर्यवन अथवा पर्याय अथवा उस (मन) के पर्याय आदि का ज्ञान मन:पर्यव कहलाता है।" 3. आवश्यकचूर्णि के अनुसार - जिस ज्ञान के उत्पन्न होने पर मुनि मनुष्य क्षेत्र के संज्ञी जीवों के मन:प्रायोग्य मनरूप में परिणत मनोद्रव्यों को जानता है, वह मन:पर्यवज्ञान है। 4. सिद्धसेनगणि के अनुसार - मनःपर्यय अर्थात् मन के विचार। मन:पर्यय और मनःपर्यव ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। संज्ञी जीव किसी भी कार्य का या वस्तु-पदार्थ का मन से चिंतन करता है, उसी समय चिन्तनीय पदार्थ के प्रकार भेद के अनुसार चिन्तन कार्य की प्रवृत्ति में प्रवर्तमान हुआ मन भी पृथक्-पृथक् अर्थात् भिन्न-भिन्न आकृति वाला होता है। वे आकृतियाँ मन की पर्याय हैं, उन पर्यायों को प्रत्यक्ष साक्षात् जानने वाले का ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान या मन:पर्यव ज्ञान कहलाता है। 5. वादिदेवसूरि के मतानुसार - जो ज्ञान संयम की विशिष्ट शुद्धि से उत्पन्न होता है, तथा मन:पर्याय ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है और मन सम्बन्धी बात को जान लेता है, उसे मन:पर्याय ज्ञान कहते हैं। यहाँ संयम की विशुद्धता मन:पर्यव ज्ञान का बहिरंग कारण है और मन:पर्यवज्ञानावरण का क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। 6. हेमचन्द्र के कथनानुसार -द्रव्य मन के चिंतन के अनुरूप जो नाना प्रकार के पर्याय होते हैं, उन्हें जानने वाला ज्ञान मन:पर्याय ज्ञान कहलाता है। 7. यशोविजय के मतानुसार - मनःपर्याय प्रत्यक्ष वह है जो मात्र मनोगत विविध अवस्थाओं का साक्षात्कार करे 8. नंदीसूत्र के व्याख्याकार आत्मारामजी महाराज के अनुसार - संज्ञी जीव किसी भी वस्तु का चिन्तन-मनन मन से ही करते हैं। मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, उसे मनःपर्याय ज्ञान कहते हैं। जब मन किसी भी वस्तु का चिन्तन करता है, तब चिन्तनीय वस्तु 16. मणपजवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं। - आवश्यकनियुक्ति गाथा 76 17. पज्जवणं पज्जयणं पज्जाओ वा मणम्मि मणसो वो। तस्स व पजायादिन्नाणं मणपज्जवं नाणं। विशेषा० भाष्य गाथा, 83, पृ. 47 18. जेण उप्पण्णेण णाणेण मणुस्सखेत्ते सन्निजीवेहिं मणपातोग्गाणि दव्वाणि मण्णिजमाणाणि जाणति तं मणपज्जवणाणं भन्नति / - आवश्यकचूर्णि 1 पृ. 71 19. मन:पर्यायः, मन इति च मनोवर्गणा जीवेन मन्यमाना द्रव्यविशेषा उच्यन्ते, तस्य मनसः पर्यायाः-परिणामविशेषाः मन:पर्यायाः, मनसि वा पर्यायाः, तेषु मनःपर्यायेषु यज्ज्ञानं तन्मनःपर्यायज्ञानमिति। - सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, पृ. 101 20.संयमविशुद्धिनिबंधनाद् विशिष्टावरणविच्छेदाज्जातं मनोद्रव्यपर्यायालम्बनं मनःपर्यायज्ञानम्।-प्रमाणनयतत्त्वालोक सूत्र. 2.22, पृ. 23 21. मनसो द्रव्यरूपस्य पर्यायाश्चिन्तनानुगुणापरिणामभेदास्तद्विषयं ज्ञानं मन:पर्यायः।-प्रमाणमीमांसा पृ. 35 22. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, पृ. 41