Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 421
________________ [396] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन (14) आवश्यकनियुक्ति और भाष्य में नौ अनुदिश देवों तथा उनके अवधि क्षेत्र का वर्णन नहीं है। जबकि धवलाटीका में नौ अनुदिश देवों का उल्लेख करते हुए इनका भी अवधि क्षेत्र बताया है। (15) लोकनाली का सभी देवलोकों के साथ सम्बन्ध जोड़ना चाहिए, ऐसा वर्णन आवश्यक नियुक्ति. विशेषावश्यकभाष्य आदि में प्राप्त नहीं होता है। जबकि धवलाटीका लोकनाली अन्तर्दीपक है, ऐसा जानकर उसको सभी के साथ जोड़ना चाहिए। (16) श्वेताम्बर परम्परा में कल्पवासी देवों के जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है। जबकि दिगम्बर परम्परा में कल्पवासी देवों के अवधिज्ञान के क्षेत्र का जघन्य और उत्कृष्ट की दृष्टि से स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। (17) श्वेताम्बर परम्परा में अवधिज्ञान के बाह्य संस्थानों का वर्णन है, जबकि दिगम्बर परम्परा में अवधिज्ञान के संस्थान शरीरगत बताये हैं। (18) श्वेताम्बर परम्परा में आनुगामिक-अनानुगामिक (नंदीसूत्र में) अवधिज्ञान के प्रभेद दिगम्बर परम्परा में वर्णित भेदों से भिन्न हैं। (19) श्वेताम्बर परम्परा में अवस्थित अवधिज्ञान की विचारणा क्षेत्र, उपयोग और लब्धि के आधार से की गई है, जबकि दिगम्बर परम्परा में अवस्थित अवधिज्ञान की विचारणा सामान्य रूप से की गई है। (20) श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार द्रव्य में दो प्रकार की वृद्धि और हानि होती है, जबकि दिगम्बर मान्यता के अनुसार द्रव्य में भी वृद्धि और हानि चार प्रकार से होती है। (21) श्वेताम्बर परम्परा में जिस अवधिज्ञान में विचारों के प्रशस्त होने पर वृद्धि होती है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है और विचारों के अप्रशस्त होने पर हानि होती है, वह हीयमान अवधिज्ञान है। वर्धमान अवधिज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति तक बढ़ता रहे, ऐसा उल्लेख नहीं है। दिगम्बर परम्परा में वर्धमान अवधिज्ञान के लक्षण में दो बातें विशेष है - 1. जो उत्पत्ति से प्रति समय अवस्थान बिना वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। 2. केवलज्ञान की प्राप्ति हो वहाँ तक क्रमश: वृद्धि होती है। हीयमान अवधिज्ञान उत्पन्न हो कर वृद्धि और अवस्थान के बिना नि:शेष विनष्ट होने तक घटता ही जाता है। (22) अवधिज्ञान की तीव्रता और मंदता का वर्णन प्राप्त होता है, साथ ही स्पर्धक अवधिज्ञान का वर्णन भी प्राप्त होता है। जबकि दिगम्बर परम्परा में अवधिज्ञान की तीव्रता और मंदता का वर्णन प्राप्त नहीं होता है और स्पर्धक अविधज्ञान का भी वर्णन प्राप्त नहीं होता है। (23) जिनभद्रगणि ने द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव संबंधी बाह्य विषय के अवधिज्ञान की प्राप्ति में एक समय में उत्पाद (उत्पन्न होना), प्रतिपात (नष्ट होना) और उत्पाद-प्रतिपात के माध्यम से बाह्य और आभ्यतंर अवधिज्ञान का वर्णन किया है। दिगम्बर परम्परा में ऐसा वर्णन उपलब्ध नहीं होता है। (24) श्वेताम्बर ग्रंथों में संबद्ध और असंबद्ध अवधिज्ञान का वर्णन प्राप्त होता है। दिगम्बर ग्रंथों में संबद्ध और असंबद्ध अवधिज्ञान का वर्णन प्राप्त नहीं होता है। (25) श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार अवधिज्ञानी द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को जानते हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार अवधिज्ञानी द्रव्यों की असंख्यात पर्यायों को ही जानते हैं।

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