Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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________________ [388] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन उत्कृष्ट से अवधिज्ञानी द्रव्य से और क्षेत्र से असंख्यात लोकाकाश प्रमाण खंडों के अवगाहित किये हुए द्रव्यों को देखता है (जानता है)। काल से द्रव्यों की असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी अतीत, अनागत की पर्यायों को जानता है और भाव से प्रत्येक द्रव्य की असंख्यात पर्यायों को देखता है। नंदीसूत्र में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार के अवधिज्ञानों के लिए अनंत पर्याय का प्रमाण बताया है। 73 नंदीचूर्णि के अनुसार भाव (पर्याय) जघन्य से उत्कृष्ट अनन्त गुणा अधिक है। उत्कृष्ट भाव सर्वभावों की अपेक्षा अनन्तवें भाग जितने हैं।74 क्योंकि सर्वभावों को केवलज्ञानी ही जान सकते हैं। हरिभद्र इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यहाँ प्रत्येक द्रव्य की अनंत पर्याय नहीं लेकर मात्र आधारभूत द्रव्यों की अनंत पर्यायों का ग्रहण करना चाहिए।75 अतः अवधिज्ञानी आधारभूत ज्ञेय द्रव्य की अनन्तता के कारण अनन्त पर्यायों को जानता है। प्रतिद्रव्य की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को नहीं जानता है। अन्य द्रव्यों की पर्यायों का स्पष्टीकरण मलयगिरि करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्य की पर्याय संख्यात या असंख्यात हो सकती है। इस प्रकार नंदी के टीकाकार नंदीगत अनंत शब्द का संबंध पर्याय के साथ नहीं जोड़कर द्रव्य के साथ जोड़ते हैं। धवलाटीका के अनुसार अनन्त पर्यायों को नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि अवधिज्ञानी असंख्यात पर्यायों को ही जानता है। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में पर्याय को जानने के सम्बन्ध में मतभेद हैं। अवधिज्ञान के उत्कृष्ट विषय के सम्बन्ध में मान्यता है कि अविधज्ञानी सर्व लोक को देखता है और अलोक में एक से अधिक आकाश-प्रदेश को देखता है। यहाँ शंका होती है कि अवधिज्ञान का विषय तो रूपी पदार्थ है, फिर वह अलोक में अरूपी आकाश-प्रदेश कैसे देख सकता है? इसका समाधान यह है कि अलोक में रूपी द्रव्य नहीं हैं, परन्तु किसी जीव को इतना अवधिज्ञान हो जाता है कि पूरे लोक में रूपी पदार्थ को जान लेने के बाद यदि अलोक में भी रूपी द्रव्य हों, तो वे उसके एक प्रदेश को भी देख सकते हैं। इतनी शक्ति वाला अवधिज्ञान अप्रतिपाती होता है। अलोक में तो रूपी पदार्थ है ही नहीं, परन्तु ज्ञान की शक्ति बताने के लिए यह कल्पना की गई है, जिससे सरलता पूर्वक उसकी ज्ञान-शक्ति (सामर्थ्य) का परिचय हो सके। जितनी अलोक में वृद्धि होगी उतने ही लोक में रहे हुए रूपी पदार्थों को अवधिज्ञानी सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम रूप से जानता है। श्वेताम्बर परम्परा में अवधिज्ञान के क्षेत्र का नाप प्रमाणांगुल तथा दिगम्बर परम्परा में अवधिज्ञान का कुछ क्षेत्र उत्सेधांगुल से तथा कुछ क्षेत्र प्रमाणांगुल से नापा गया है। अवधिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की वृद्धि के वर्णन में द्रव्य की वृद्धि होने पर क्षेत्रादि की वृद्धि और हानि होती है कि नहीं, इसका जिनभद्रगणि ने परम्परा से प्राप्त सूक्ष्म विवेचन किया है। 473. केवलं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमनन्तगुणम्। मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 98 474. नंदीचूर्णि पृ. 34 475. भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तान् भावान् पर्यायान् आधारद्रव्यानन्तत्वात् न तु प्रतिद्रव्यमिति। - हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 34 476. भावान्पर्यायान् आधारद्रव्यानन्तत्वात्, न तु प्रतिद्रव्यं, प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानां वा पर्यायाणां दर्शनात्। - मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 98 477. षट्खण्डागम पु, 9, पृ. 28