Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[298] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
4. अनुयोग - जिसमें मूल विषय को पुष्ट करने वाले विषय का वर्णन हो वह अनुयोग है। इसके दो भेद होते हैं- १. मूल प्रथमानुयोग - जिसमें तीर्थंकरों के जीवन चारित्र का वर्णन है। २. गण्डिकानुयोग-जिसमें सामान्य और बोधगम्य तथा गन्ने के समान मधुर विषय का वर्णन हो वह गण्डिकानुयोग है।
5. चूलिका - मुख्य प्रतिपाद्य विषय के कथन के बाद विषय परिशिष्ट स्वरूप अथवा उपसंहार स्वरूप प्रतिपादन को चूलिका कहते हैं।
इस प्रकार दोनों परम्परा में मान्य बारह अंगों की विषय वस्तु की समीक्षा की गई है।
द्वादशांगी शब्द रूप है, इसलिए पुरुष ही इसका कर्त्ता है। जिस प्रकार धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्य शाश्वत हैं, वैसे ही द्वादशांगी भी शाश्वत है। इसलिए ध्रुव आदि सात विशेषण दिये गए हैं। द्वादशांगी की विराधना करने वाला जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है तथा आराधना करने वाला शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है।
षट्खंडागम में श्रुतज्ञान के दो प्रकार से भेद किये गए हैं। -1. अक्षर की अपेक्षा से श्रुतज्ञान के संख्यात भेद हैं। 2. प्रमाण की अपेक्षा श्रुतज्ञान के पर्याय आदि बीस भेद होते हैं, जिनका विस्तार से वर्णन किया गया हैं।
श्रुतज्ञान के विषय का वर्णन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर किया गया है। इसमें जानने (जाणइ) और देखने (पासइ) रूप दो क्रियाओं का प्रयोग किया गया है। पासइ क्रिया के सम्बन्ध में जिनभद्रगणि का कहना है कि नंदीसूत्र में 'जाणइ न पासइ' होना चाहिए। क्योंकि श्रुतज्ञानी जानता है, लेकिन देखता नहीं है। आगम के अनुसार श्रुतज्ञान के विषय में प्रयुक्त पासइ क्रिया की सिद्धि पश्यत्ता के आधार पर की गई है।
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में श्रुतज्ञान के स्वरूप में अन्तर -
प्रस्तुत अध्याय को अध्ययन करने पर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में श्रुतज्ञान के स्वरूप में अन्तर प्रतीत हुए जो निम्न प्रकार से हैं -
1. आवश्यकनियुक्ति में श्रुतज्ञानावरण की असंख्यात प्रकृतियाँ बताई है। जबकि षट्खण्डागम में श्रुतज्ञानावरण की संख्यात प्रकृतियाँ बताई हैं।
2. आवश्यकनियुक्ति की परंपरा में अक्षर-अनक्षर, संज्ञी-असंज्ञी आदि चौदह भेदों का वर्णन है जबकि षट्खण्डागम की परम्परा में प्रमाण की अपेक्षा पर्याय आदि बीस भेदों का उल्लेख मिलता है।
3. श्वेताम्बर परम्परा में गर्भज तिर्यंचों को संज्ञी तथा सम्मूर्छिम तिर्यंच को असंज्ञी माना गया है जबकि दिगम्बर परम्परा में गर्भज-तिर्यंचों को संज्ञी नहीं मानकर संज्ञी और असंज्ञी माना है। इसी प्रकार सम्मूर्छिम तिर्यंच को केवल असंज्ञी नहीं मानकर संज्ञी-असंज्ञी उभय रूप में स्वीकार किया है।
4. श्वेताम्बर परम्परा में दीर्घकालोपदेशिकी आदि संज्ञा के तीन भेद दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रंथों में दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।
5. श्वेताम्बर परम्परा में अंगबाह्य के तत्त्वार्थसूत्र में तेरह तथा नंदीसूत्र में अधिक भेदों का उल्लेख है। जबकि दिगम्बर परम्परा में अंगबाह्य के चौदह भेदों का ही उल्लेख प्राप्त होता है।
6. शब्दलिंगज और अर्थलिंगज श्रुतज्ञान के इन दो भेदों का उल्लेख दिगम्बर परम्परा में प्राप्त होता है, श्वेताम्बर परम्परा में नहीं।
7. श्वेताम्बर परम्परा में निर्वृत्त्यक्षर और संस्थान के प्रभेदों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, लेकिन घवला टीका में इनके प्रभेदों का उल्लेख प्राप्त होता है।