Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [381] इस लब्धि से लब्धिमान् मुनि एक कदम में यहाँ से तेरहवें रुचकवरद्वीप में जाकर वहां के चैत्यों को वंदना करता है, वहां से पीछे फिरते हुए दूसरे कदम में नंदीश्वर द्वीप में जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदना करता है, वहाँ से तीसरे कदम में जहाँ से गया वहाँ पुनः आकर यहाँ के चैत्यों को वंदना करता है। इसी प्रकार यह तिर्यक् दिशा में गमनागमन करता है। यदि ऊर्ध्वदिशा में गमन करे तो यहाँ से एक कदम में पंडक वन में जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदन करता है, वहां से दूसरे कदम में नंदनवन में जाकर वहाँ के चैत्यों को वंदना करता है और तीसरे कदम में जहाँ से गया वहाँ आकर यहाँ के चैत्यों को वंदना करता है। उपर्युक्त वर्णन में चैत्य56 की वंदना करता है और यहाँ कुछ आचार्य चैत्य का अर्थ मन्दिर करते हैं, तो यह अर्थ संगत नहीं है, "क्योंकि न तो मानुषोत्तरपर्वत पर मन्दिर का वर्णन है और न ही स्वस्थान अर्थात् जहाँ से उन्होंने उत्पाद (उड़ान) किया है, वहाँ भी मन्दिर है। अत: चैत्य का अर्थ मन्दिर या मूर्ति करना संगत प्रतीत नहीं होता है। अपितु 'चिति संज्ञाने' धातु से निष्पन्न 'चैत्य' शब्द का अर्थ - विशिष्ट सम्यक्ज्ञानी है तथा 'वंदइ' का अर्थ स्तुति करना है, अभिवादन करना है, क्योंकि 'वदि अभिवादन-स्तुत्योः' के अनुसार यहाँ प्रसंगसंगत अर्थ 'स्तुति करना' है। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वत आदि पर अभिवादन करने योग्य कोई पुरुष नहीं रहता है। अतः वे उन-उन पर्वत, द्वीप एवं वनों में शीघ्रगति से पहुँचते हैं, वहाँ चैत्यवन्दन करते हैं अर्थात् विशिष्ट सम्यग्ज्ञानियों की स्तुति करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मानुषोत्तर पर्वत, नन्दीश्वर द्वीप आदि की रचना का वर्णन जैसा उन विशिष्ट ज्ञानियों से या आगमों से जाना था, वैसी ही रचना को साक्षात् देखते हैं, तब वे (चारणलब्धिधारक) उन विशिष्ट ज्ञानियों की स्तुति करते हैं।"1457 जंघाचारण लब्धि चारित्र और तप के प्रभाव से होती है। इस लब्धि का प्रयोग करते हुए मुनि की उत्सुकता होने से प्रमाद संभव है और इसलिये यह लब्धि शक्ति की अपेक्षा हीन हो जाती है। यही कारण है कि उसके लिए आते समय दो उत्पात करना कहा है। विद्याचारण लब्धि विद्या के वश होती है, चूंकि विद्या का परिशीलन होने से वह अधिक स्पष्ट होती है, इसलिये वह लब्धि वाला जाते समय दो उत्पाद करके जाता है, किन्तु एक ही उत्पात से पुनः अपने स्थान पर आ जाता है। 58 धवला टीका में चारण ऋद्धि धारक के आठ प्रकार बताये हैं, यथा - जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी। जैसे जो ऋषि जलकायिक जीवों को पीड़ा नहीं पहुँचाते हुए जल को नहीं छूते हुए इच्छानुसार भूमि के समान जल में गमन करने में समर्थ हैं, वे जलचारण कहलाते हैं। शेष जंघा आदि का भी लगभग ऐसा ही अर्थ जानना चाहिए।59 9. आशीविष - आशी (दाढ़) और विष (जहर) अर्थात् जिसकी दाढ़ में विष होता है, वह आशीविष कहलाता है। वह दो प्रकार का होता है - 1. जातिविष और 2. कर्मविष। जाति से आशीविष बिच्छु, मेंढक, सर्प और मनुष्य की जातियाँ है। ये अनुक्रम से अधिकअधिक विष वाले हैं। क्योंकि बिच्छु के विष का प्रभाव बढ़ते-बढ़ते आधे भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर में व्याप्त हो सकता है। मेंढक का विष पूरे भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर में व्याप्त हो सकता है। सर्प का विष 455. इनका विस्तृत वर्णन युवाचार्य मधुकरमुनि भगवती सूत्र (भाग 4) शतक 20 उद्देशक 9 के पृ. 66-71 पर देखें। 456. चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म.सा. ने चैत्य शब्द के 112 अर्थों की गवेषणा की है। जिनका उल्लेख आगम प्रकाशन समिति ब्यावर द्वारा प्रकाशित औपपातिक सूत्र (पृ० 6-7) में है। 457. युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र (भाग 4) शतक 20, उद्देशक 9, पृ. 69 458, जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग 6, पृ. 292-293 459. षट्ख ण्डागम, पु. 9,4.1.17 पृ. 78-79

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548