Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 328
________________ पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान [303] अवधिज्ञान के प्रकार प्रज्ञापनासूत्र उमास्वाति नंदीसूत्र पूज्यपाद अकलंक अमृतचन्द्र पंचसंग्रह योगीन्दुदेव आदि आचार्यों और ग्रंथों में अवधिज्ञान के मुख्य रूप से दो भेद किए हैं -1. भवप्रत्यय, 2. क्षायोपशमिक। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवता और नारकी को एवं क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंच को होता है। _आचार्य भूतबलि,42 आचार्य गुणधर,43 आचार्य पुष्पदंत, आचार्य नेमिचन्द्र,45 आचार्य वादिदेवसूरि46 आदि आचार्यों ने मुख्य रूप से अवधिज्ञान के दो भेद किए हैं - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय एवं उनके स्वामियों का कथन उपर्युक्तानुसार किया है। सारांश यह है कि उपर्युक्त वर्णन के आधार पर अवधिज्ञान के तीन भेद प्राप्त होते हैं- 1. भवप्रत्यय, 2. क्षायोपशमिक और 3. गुणप्रत्यय। अत: आचार्यों को मुख्य रूप से अवधिज्ञान के तीन भेदों का उल्लेख करना चाहिए था, लेकिन सभी आचार्यों ने दो ही भेदों का उल्लेख किया है। ऐसी शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त आगमों और ग्रंथों में वर्णित क्षायोपशमिक और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान एक ही प्रकार का हैं। यह आचार्यों की मात्र कथनशैली है, इनके लक्षण में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। आचार्य भद्रबाहु,47 और आचार्य पुष्पदंत के अनुसार अवधिज्ञान के असंख्य प्रकार हैं। जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा है कि विषयभूत क्षेत्र और काल की अपेक्षा से अवधिज्ञान के सभी भेद मिलाकर संख्यातीत (असंख्यात) हैं और द्रव्य और भाव की अपेक्षा से अवधिज्ञान के अनंत भेद होते हैं।' अवधिज्ञान के ज्ञेयपने के नियम से जितना अवधिज्ञान का विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र, प्रदेश और उत्कृष्ट काल के समय के परिणाम है, इतना ही अवधिज्ञान के भेदों का परिणाम है। अवधिज्ञान के अनंत भेद हैं उनमें से कुछ भेद तो भवप्रत्ययिक और कुछ भेद क्षायोपशमिकप्रत्ययिक हैं। इसलिए मुख्य रूप से अवधिज्ञान के दो ही भेद हैं। इन दो भेदों को समग्र जैन परम्परा स्वीकार करती है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान का स्वरूप विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार-जिस प्रकार पक्षियों द्वारा आकाश में उड़ने की शक्ति में भव (जन्म) कारण है उसी प्रकार से नारकी और देवता में अवधिज्ञान का हेतु भव (जन्म) है, इसलिए इस अवधिज्ञान को भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान कहते हैं।2 34. युवाचार्य मधुकरमुनि, पृ. 183 35. पं. सुखलालजी, तत्वार्थसूत्र, पृ. 38 36. युवाचार्य मधुकरमुनि, पृ. 29 37. सर्वार्थसिद्धि, पृ.90 38. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. 293 39. तत्त्वार्थसार, पृ.12 40. पंचसंग्रह, पृ.27 41. तत्त्वार्थवृत्ति, पृ.25 42. महाबंध, पु. 1 पृ. 24 43. काषायपाहुड, पृ.15 44. षट्खण्डागम (धवला), पु.13 सूत्र. 5.5.52 पृ. 290 45. गोम्मटसार जीवकांड भाग 2, पृ.618 46. प्रमाणनयतत्त्वलोक, 2.21, पृ. 22-23 47. आवश्यकनियुक्ति गाथा 25 48. षटखण्डागम, पु. 13 सूत्र 5-5-52 पृ. 289 49. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568 50. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 570-571 51. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 24, षटखण्डागम, पु. 13 सूत्र 5.5.43, तत्त्वार्थसूत्र, सूत्र 1.21 52. भवो नारकादिजन्म स पक्षिणां गगनोत्पतनलब्धिरिवोत्पत्तौ प्रत्ययः कारणं यासां ता भवप्रत्ययाः । ताश्च नारकाऽमराणामेव। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 568 की बृहवृत्ति, पृ. 260

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