Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
[3751 विदिशा में निरंतर नहीं देख पाते हैं। अतः ऐसे अवधिज्ञानियों से भिन्नता बताने के लिए सभी दिशाविदिशा में देखते हैं, ऐसा कहा है।
प्रश्न - उपर्युक्त अवधि अबाह्य अवधि नहीं है तो उसे यहाँ कहने का क्या तात्पर्य है?
उत्तर - आगम में भी ऐसा अबाह्य अवधि नहीं बताया है, लेकिन लोक प्रसिद्ध अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के मध्य में रहने से यह भी अवधिज्ञान है। इस प्रकार के अवधिज्ञान से अलग बताने के लिए सब ओर से देखता है, ऐसा कहा है। 29
नारकी आदि में सब ओर से देखते हैं ऐसा कहने से नारकी आदि देश से देखते हैं, यह संशय दूर होता है। 'अबाह्य अवधिवाला' इस शब्द से नारकी, देव और तीर्थंकरों का नियत अवधिज्ञान कहा है। शेष मनुष्य और तिर्यंच अवधिज्ञान सहित भी होते हैं और रहित भी तथा सर्व शब्द से सर्व से और देश से देखने सम्बन्धी संशय दूर होता है। मनुष्य और तिर्यंच का अवधि नियत नहीं होता है, इसलिए अवधि से अबाह्य है, ऐसा कहा है।।
शंका - नारकी और देवता के भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान है:30 और तीर्थंकर गृहस्थ अवस्था में भी तीन ज्ञान सहित होते हैं,431 इस प्रकार नारकी, देव और तीर्थंकर में नियम से अवधि सिद्ध होता है। तो नारकी आदि में 'अबाह्य अवधि' होता है, ऐसा कहने का क्या कारण है?
समाधान - ‘भवप्रत्ययिक' वचन से नारकी, देवों के नियत अवधि सिद्ध होता है। लेकिन इससे यह नहीं स्पष्ट नहीं होता है कि यह अवधिज्ञान भव के अंत तक रहता है अथवा कुछ काल (समय) तक रहकर गिर (नष्ट हो) जाता है। इस कारण से 'अबाह्य अवधि' कहने से काल का नियम किया है। अर्थात् नारकी आदि के सर्वकाल अवधि रहता है, बीच में नहीं गिरता है।
प्रश्न - लेकिन उपर्युक्त कथन तीर्थंकर में घटित नहीं होगा, क्योंकि उनके केवलज्ञान उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान का अभाव हो जाता है। उत्तर - ऐसा कहना अयुक्त है, क्योंकि केवलज्ञान होते ही वह अपने विषय को सम्पूर्णता से जानने लगता है। छद्मस्थता में तो उसके आवरण था, लेकिन केवलज्ञान उत्पन्न होते ही उसके सम्पूर्ण आवरणों का नाश हो जाता है। जिससे वह अनन्त धर्मों युक्त वस्तुओं को सम्पूर्णता से जानता है। अतः काल का नियम छद्मस्थावस्था की अपेक्षा किया गया है, केवली की अपेक्षा से नहीं। मनुष्य और तिर्यंच देश और सर्व से देखते हैं। 32 एक क्षेत्र, अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान
ये भेद षट्खण्डागम की परंपरा में ही प्राप्त होते हैं। धवलाटीका के अनुसार जो अवधिज्ञान जीव के शरीर के एक देश से होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्र के शरीर के सब अवयवों में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है।133
षट्खण्डागम में क्षेत्र का अर्थ श्रीवत्स, कलश, शंख आदि संस्थान किया है। अकलंक ने भी ऐसा ही अर्थ करते हुए कहा है कि जिस अवधि के उपयोग में श्रीवत्स आदि में से एक उपकरण हेतुभूत होता है, वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है। जब अनेक उपकरण हेतुभूत होते हैं तो वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान होता है। 34 धवलाटीकाकार के अनुसार नारक, देव और तीर्थंकर का अवधि अनेकक्षेत्र होता है एवं 429. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 768
430. भवप्रत्ययो नारक देवानाम्। - तत्त्वार्थसूत्र 1.22 431. तीहिं नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव होंति गिहवासे।
432. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 769-771 433. जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एकदेसो करणं होदि तमोहिणाणमेगक्खेत्तं णाम। जमोहिणाणं पडिणियदखेत्तं वज्जिय
सरीरसव्वावयवेसु वट्टदि तमणेयक्खेत्तं णाम। - षट्खण्डागम (धवला) पुस्तक 13, सू. 5.5.56, पृ. 295 434. श्रीवृक्षस्वस्तिकनंद्यावर्ताद्यन्यतमोपयोगोपकारण एकक्षेत्रः । तदनेकोपकरणोपयोगोऽनेकक्षेत्रः। - तत्त्वार्थराजवार्त्तिक, सूत्र 1.25