Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[322] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन काल की वृद्धि
जिनभद्रगणि ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि अवधिज्ञान के काल की वृद्धि होने पर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव इन चारों की वृद्धि अवश्य होती है। जैसे कि क्षयोपशम के कारण अवधिज्ञानी के काल का मात्र एक ही 'समय' बढ़े तो क्षेत्र के बहुत से प्रदेश बढ़ते हैं और क्षेत्र की वृद्धि होने पर द्रव्य की वृद्धि अवश्य होती है, क्योंकि प्रत्येक आकाश प्रदेश में द्रव्य की प्रचुरता होती है और द्रव्य की वृद्धि होने पर पर्यायों की वृद्धि होती है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में पर्यायों की बहुलता होती है। ऐसा ही वर्णन हरिभद्र आदि आचायों ने किया है। 42 धवलाटीकाकार ने काल की वृद्धि के विकल्प को स्वाभाविक माना है। 43
काल की सूक्ष्मता दर्शाने के लिए टीकाकारों ने उदाहरण दिया है, कि जैसे कमल के सौ पत्ते एक साथ रखे हुए हैं और यदि उनको भेदना है तो एक-एक पत्र को भेदने में असंख्यात समय लग जाते हैं। 44 समय इतना अतिसूक्ष्म होता है कि जिससे भेदने में जो असंख्यात समय लगे, उन समयों को भिन्न-भिन्न रूप में विभाजित नहीं कर सकते हैं। क्षेत्र की वृद्धि
जब अवधि के देखने योग्य क्षेत्र में वृद्धि होती है तब काल में वृद्धि हो भी सकती है और नहीं भी। क्योंकि अल्प क्षेत्र की वृद्धि से काल में वृद्धि नहीं होती है। यदि कोई ऐसा माने कि जब क्षेत्र में प्रदेश आदि रूप से वृद्धि होती है तो उस समय में काल की भी नियम से समयादि रूप से वृद्धि होती है, तो जिनभद्रगणि कहते है कि ऐसा मानने पर क्षेत्र में अंगुलमात्र श्रेणीरूप बढ़ने पर असंख्यात अवसर्पिणी रूप से काल में वृद्धि हो जाएगी, क्योंकि आगम वचन है कि 'अंगुलसेढीमित्ते ओसप्पिणीओ असंखेज्जा145 अर्थात् एक अंगुलप्रमाण श्रेणी में जितने प्रदेश हैं, उन प्रदेशों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश निकाला जाये तो असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में वह सभी प्रदेश निकलते हैं अर्थात् इस श्रेणी के प्रदेशों को खाली करने में असंख्यात अवसर्पिणी तथा उत्ससर्पिणी बीत जाती है अर्थात् जितने प्रदेश अंगुल प्रमाण श्रेणी में होते हैं वे असंख्यात अवसर्पिणी काल के समयों के बराबर हैं, इसलिए अंगुल प्रमाण क्षेत्र बढ़ता है तो काल असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी जितना बढ़ जायेगा।46 जो कि उचित नहीं है, क्योंकि आगमानुसार अंगुल पृथक्त्व क्षेत्र को जानने वाला अवधिज्ञानी काल की अपेक्षा आवलिका पर्यन्त काल को जानता है,147 न कि असंख्यात अवसर्पिणी रूप काल के भूत-भविष्य को जानता है। काल धीरे-धीरे बढ़ता है, क्षेत्र शीघ्र बढ़ता है। अतः क्षेत्र बढ़ने पर काल नहीं भी बढ़े। परमावधि के पास एकादि प्रदेश बढ़ने पर काल नहीं बढ़ता है तथा परमावधि का उत्कृष्ट काल हो गया हो तो मात्र क्षेत्र ही बढ़ेगा, काल नहीं। हरिभद्र148 और मलयगिरि ने नंदीवृत्ति में भी ऐसा ही उल्लेख किया है। मलयगिरि ने यहां अंगुल में प्रमाण अंगुल का ग्रहण किया है। मतांतर से उत्सेधांगुल का भी उल्लेख है।49 इसलिए क्षेत्र की वृद्धि में काल की वृद्धि की भजना है तथा द्रव्य और पर्याय अवश्य बढ़ते हैं। 141. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 621 142. क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् कालस्य च स्थूलत्वात्। -हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 32 143. साभावियादो। षट्खण्डागम पु. 13, सूत्र 5.5.59 गाथा 8, पृ. 309 144. सूक्ष्मश्चश्लक्ष्णश्च भवति कालः, यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे समयाः प्रतिपत्रमसंख्येयाः प्रतिपादिताः। तथापि ततः कालात् सूक्ष्मतरं
भवति क्षेत्रम्। - हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ. 28, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 95 145. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 621, युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र 21 पृ. 38 146. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 621
147. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 608 148. अङ्गुलश्रेणिमात्र क्षेत्रप्रदेशाग्रमसमवेयावसर्पिणी समयराशिपरिमाणमिति। - हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 28 149. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 93