Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[209] तीक्ष्ण एवं विकसित होना आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो उसका श्रुतज्ञान तीक्ष्ण एवं विकसित नहीं होगा। अत: मतिज्ञान, श्रुतज्ञान की तीक्ष्णता एवं विकास का कारण है, पर श्रुतज्ञान मतिज्ञान की तीक्ष्णता एवं विकास का एकान्त कारण नहीं, क्योंकि कइयों में श्रुतज्ञान तीक्ष्ण एवं विकसित न होते हुए भी मतिज्ञान तीक्ष्ण एवं विकसित होता है।
3. स्थिरीकरण - यदि किसी को प्राप्त श्रुतज्ञान टिकाना है, तो उसमें स्मृतिरूप मतिज्ञान होना आवश्यक है। यदि उसमें स्मृति रूप मतिज्ञान नहीं हुआ, तो श्रुतज्ञान टिक नहीं सकता। अत: मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के टिकाव का कारण है, पर श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के टिकाव का कारण नहीं है, क्योंकि मतिज्ञान स्वतः टिकता है, श्रुतज्ञान के कारण नहीं।
इस प्रकार श्रुतज्ञान के ग्रहण, तीक्ष्णता, विकास और स्थिरीकरण में मतिज्ञान पूर्व सहायक है। अतएव श्रुतज्ञान, मतिपूर्वक है। पर मतिज्ञान के ग्रहण आदि में श्रुतज्ञान सहायक नहीं होने से मतिज्ञान, श्रुतपूर्वक नहीं है। इस कारण मति और श्रुत, ये दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं।
मति-श्रुत को अभिन्न सिद्ध करने का प्रयास सिद्धसेन दिवाकर ने किया है, परन्तु दिगम्बर साहित्य में ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। यशोविजय जैन वाङ्मय में एक ऐसे विद्वान् थे, जिन्होंने मति और श्रुत की आगमसिद्ध युक्ति को स्वीकार करते हुए भी सिद्धसेन के मत का तार्किक शैली से समर्थन किया है।
सामान्य रूप से मतिज्ञान के 28 भेद हैं, लेकिन इस सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तर का उल्लेख करते हुए उसका निराकरण किया गया है। साथ ही अन्य ग्रंथों के आधार से मतिज्ञान के 2 से 384 तक के भेदों का उल्लेख किया गया है।
श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का वर्णन करते हुए जिनभद्रगणि ने स्पष्ट किया है कि श्रुत निश्रित में श्रुतस्पर्श की बहुलता होती है, जबकि अश्रुतनिश्रित में श्रुत का स्पर्श अल्प होता है। श्रुत का अल्प और बहुत्व स्पर्श ही दोनों में भेद का व्यावर्तक लक्षण है। __जिनभद्रगणि ने औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों को अवग्रहादि से अभिन्न माना है। औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों का मतिज्ञान के भेद के रूप में सर्वप्रथम उल्लेख नंदीसूत्र में प्राप्त होता है।
1. औत्पतिकी - नटपुत्र रोह की बुद्धि की तरह जो बुद्धि बिना देखे सुने और सोचे हुये पदार्थों को सहसा ग्रहण के कार्य को सिद्ध कर देती है। उसे औत्पतिकी बुद्धि कहते हैं।
2. वैनयिकी - नैमित्तिक सिद्ध पुत्र के शिष्यों की तरह गुरुओं की सेवा शुश्रूषा करने से प्राप्त होने वाली बुद्धि वैनयिकी है।
3. कार्मिकी - कर्म अर्थात् सतत अभ्यास और विचार से विस्तार को प्राप्त होने वाली बुद्धि कार्मिकी है। जैसे सुनार, किसान आदि कर्म करते करते अपने धन्धे में उत्तरोत्तर विशेष दक्ष हो जाते हैं।
4. पारिणामिकी - अति दीर्घ काल तक पूर्वापर पदार्थों के देखने आदि से उत्पन्न होने वाला आत्मा का धर्म परिणाम कहलाता है। उस परिणाम कारणक बुद्धि को पारिणामिकी कहते हैं। अर्थात् वयोवृद्ध व्यक्ति को बहुत काल तक संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है। इन चार बुद्धियों के हिन्दी में चार दोहे हैं, वे इस प्रकार हैंऔत्पत्तिकी बुद्धि -बिन देखी बिन सांभली, जो कोई पूछे बात।
उसका उत्तर तुरन्त दे, सो बुद्धि उत्पात॥