Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
है, इसमें 1. प्राणातिपात 2. मृषावाद 3. अदत्तादान 4. अब्रह्म और 5. परिग्रह, ये पाँच अध्ययन हैं। जिनका 1. स्वरूप 2. नाम 3. क्रिया 4. फल और 5. कर्ता, इन पाँच के माध्यम से वर्णन किया गया है। जैसेकि हिंसा का महादुःखकारी फल जीव को भोगना पड़ता है। इसलिये सुखार्थी पुरुष को हिंसा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। असत्यवादी पुरुष को नरक, तिर्यञ्च गतियों में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। अदत्तादान (चोरी) करने वाले प्राणियों को इस लोक में राज्य की तरफ से मृत्यु दण्ड तक दिया जाता है और परलोक में नरक-तिर्यंच गति में जन्म लेकर अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। अब्रह्म (मैथुन) का सेवन कायर पुरुष ही करते हैं, शूरवीर नहीं । इसका सेवन कितने ही समय तक किया जाय, किन्तु तृप्ति नहीं होती। जो राजा, महाराजा, वासुदेव, चक्रवर्ती, इन्द्र, नरेन्द्र आदि इसमें फँसे हुये हैं वे अतृप्त अवस्था में ही काल धर्म को प्राप्त हो जाते हैं और दुर्गति में जाकर वहाँ अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं। परिग्रह जो पाप का बाप है उसमें अधिक फंसने से सुख प्राप्त नहीं होता। किन्तु सन्तोष से ही सुख की प्राप्ति होती है। इन आस्रवों का पापकारी फल बताकर इन से निवृत्त होने की शास्त्रकार ने प्रेरणा दी है।
दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम संवर द्वार है। इसमें 1. अहिंसा 2. सत्य 3. दत्त 4. ब्रह्मचर्य और 5. अपरिग्रह, ये पाँच अध्ययन हैं। जिनका स्वरूप आदि से वर्णन किया गया है। इस प्रकार इसमें अहिंसा आदि का बहुत सुन्दर शब्दों में वर्णन किया है तथा यह बतलाया गया है कि संवर द्वारों की सम्यक् प्रकार से आराधना करने से जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रश्न अर्थात् दूतवाक्य, नष्ट, मुष्टि, चिन्तादि विषयक प्रश्न का त्रिकाल गोचर अर्थ, जो धनधान्य आदि की लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, जय-पराजय
आदि से सम्बद्ध है, वह जिसमें व्याक्रियते अर्थात् उत्तरित किया गया हो, वह प्रश्नव्याकरण है। जिसमें अंग हेतु और नयों के आश्रित प्रश्नों का खंडन और मंडन द्वारा विचार करने का वर्णन है तथा लौकिक और शास्त्रसंबंधी दोनों प्रकार के पदार्थों का भी वर्णन है। अथवा शिष्यों के प्रश्न के अनुसार आक्षेपणी (जिस कथा में पक्ष का स्थापन है), विक्षेपिणी (जिसमें खंडन है), संवेदिनी (जिसमें यथावत् पक्ष आदि का ज्ञान हो) और निर्वेदिनी (जिसमें संसार से भय हो) ये चार कथाएं जिसमें वर्णित हो, वह प्रश्नव्याकरण है। इसमें तिरानवें लाख सोलह हजार पद हैं।
समीक्षा - श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु दिगम्बर परम्परा में वर्णित प्रश्नव्याकरण से मिलती है। लेकिन वर्तमान में प्राप्त प्रश्नव्याकरण से कोई समानता नहीं है।
वर्तमान प्रश्नव्याकरण में जिन पांच आश्रव और संवर द्वारों का उल्लेख हैं उसके विपरीत स्थानांग में वर्णित दस अध्ययनों के नाम भिन्न है, यथा उपमा, संख्या, ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित, क्षौमकप्रश्न, कोमलप्रश्न, आदर्शप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न और बाहुप्रश्न।67
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यदि नंदीसूत्रकार के सम्मुख पांच आश्रव तथा संवर द्वारों का निरूपण होता तो वे उनका उल्लेख अवश्य करते हैं। उन्होंने उल्लेख नहीं किया इसका यह अर्थ है कि वर्तमान में प्राप्त प्रश्नव्याकरण के स्वरूप की रचना देवर्धिगणि के उत्तरकाल में हुई है।68 11. विपाक सूत्र
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के शुभ और अशुभ परिणामों को विपाक कहते हैं। ऐसे कर्म विपाक का वर्णन जिस सूत्र में हो वह विपाक सूत्र कहलाता है। विपाक का अर्थ है-शुभ-अशुभ 367. स्थानांग सूत्र, स्थान 10, पृ. 728
368. अचार्य महाप्रज्ञ, नंदी, पृ. 174