Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
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श्रुत ज्ञान के विषय की तुलना मतिज्ञान और केवलज्ञान के विषय से निम्न प्रकार से कर सकते हैं। मतिज्ञान श्रुतज्ञान
केवलज्ञान द्रव्य आदेशत: सर्व द्रव्यों को श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व द्रव्यों को सर्व द्रव्यों को जानता-देखता है जानता-देखता है
जानता-देखता है क्षेत्र आदेशत: सर्व क्षेत्रों को श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व क्षेत्रों को सर्व क्षेत्रों को जानता-देखता है जानता-देखता है
जानता-देखता है काल आदेशत: सर्व काल को श्रतोपयोग अवस्था में सर्व काल को सर्व काल को जानता-देखता है जानता-देखता है
जानता-देखता है भाव आदेशतः सर्व भावों को श्रुतोपयोग अवस्था में सर्व भावों को सर्व भावों को जानता-देखता है जानता-देखता है
जानता-देखता है मतिज्ञान के द्रव्यादि विषय की अपेक्षा से सर्व शब्द का प्रयोग किया गया है, वह आदेश की अपेक्षा है, जबकि श्रुतज्ञान के प्रसंग पर सर्व शब्द श्रुत अथवा ग्रंथ की अपेक्षा से प्रयुक्त हुआ है। सत्पदपरुपणादि नौ अनुयोग द्वारा श्रुतज्ञान की प्ररुपणा
जिस प्रकार मतिज्ञान का सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नौ द्वारों के माध्यम से उल्लेख किया गया है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान के लिए समझ लेना चाहिए, क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों के अधिकारी एक ही हैं। 52 श्रत का प्रामाण्य
चार्वाक को छोड़कर शेष भारतीय दर्शन में शब्द प्रमाण के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। सांख्यदर्शन आप्त वचनों को शब्द प्रमाण मानता है। जैनपरम्परा में भी स्व-आगमों को प्रमाण माना जाता है। आप्तपुरुष के शब्दों को सुनकर श्रोता के चित्त में शब्द प्रतिपादित अर्थ की जो यथार्थवृत्ति उत्पन्न होती है, उसको योगदर्शन में आगम प्रमाण कहा गया है। 54 योगदर्शन का आगम प्रमाण जैनदर्शन में सम्यग्दृष्टि के भावश्रुत के समान है। वैशेषिक दर्शन और बौद्धदर्शन में आगम का अन्तर्भाव अनुमान में किया गया है। जैनदर्शन ने इस मान्यता का खंडन करके आगम को स्वतंत्र प्रमाण सिद्ध किया है। इस प्रकार न्याय, मीमांसा, वेदान्त ने भी आगम को स्वतंत्र रूप से स्वीकार किया है। 55 श्रुतज्ञान में अनुमानादि प्रमाणों का समावेश
अकलंक ने अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत की संयोजना अनुमान, उपमान आदि के साथ की है। उनके अनुसार स्वार्थानुमान, स्वप्रतिपत्ति के काल में अनक्षर श्रुत होता है। परार्थानुमान - दूसरे के लिए प्रतिपादन के काल में अक्षर श्रुत होता है। इसी प्रकार उपमान प्रमाण भी अक्षर श्रुत होता है। इसी प्रकार उपमान प्रमाण भी अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत दोनों प्रकार का होता है। पहले बताये हुए प्रमाण से अकलंक अनुमान आदि का अंतर्भाव स्वप्रतिपत्ति काल में अक्षर श्रुत में मानते हैं।57 इस प्रकार अकलंक के अनुसार वर्णजन्य श्रुत अक्षरश्रुत है और अवर्णजन्य श्रुत अनक्षरश्रुत है।
उमास्वाति ऐतिह्य और आगम को एकार्थक मानते हैं। जिनभद्रगणि श्रुत को (लब्ध्यक्षर) अनुमान रूप और उपचारतः प्रत्यक्ष मानते हैं।58 और बाद के काल में न्यायदर्शन आदि के समान जैनाचार्यों ने अनुमान, उपमान आदि प्रमाणों को स्वीकार किया गया है। जैसेकि अकलंक ने त्रिविध 452. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 557
453. सांख्यकारिका, गाथा 2 454. योगभाष्य 1.7
455. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग 2, पृ. 530-539 456. षट्खण्डागम पु. 13, पृ. 265
457. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20.15 458. तत्त्वार्थभाष्य 1.20, विशेषावश्यकभाष्य 467, 469