Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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[290] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी, सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को सामान्य प्रकार से जानते हैं, कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं, पर सर्व विशेष प्रकारों से नहीं जानते, क्योंकि केवलज्ञान की पर्याय से श्रुतज्ञान की पर्याय अनन्तगुण हीन है।4। जो उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी नहीं है, उनमें से कोई सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जानते हैं, कोई नहीं जानते।42 ___ चूर्णिकार के कथनानुसार श्रुतज्ञान के विषय का निरूपण सभिन्न दशपूर्वी से चौदहपूर्वी (श्रुतकेवली) आदि की अपेक्षा से किया गया है।43 श्रुतज्ञानी सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु स्कंध को भी जानता है, तो ग्रंथों के आधार पर जानता है।
श्रुतज्ञान के विषय में प्रयुक्त 'जाणइ' और 'पासइ' क्रिया का प्रयोग विचारणीय है, क्योंकि आगम-ग्रंथों के ज्ञान को जान सकते हैं, लेकिन देख नहीं सकते हैं। अतः 'पासइ' क्रिया के सम्बन्ध में यहाँ विरोधाभास उत्पन्न होता है। श्रुतज्ञानी इन्द्रियों के विषय से दूर रहे हुए मेरुपर्वत आदि को श्रुतज्ञान के आधार से चित्रित करता है, लेकिन वह अदृष्ट को चित्रित नहीं कर सकता है।44 विशेषावश्यकभाष्य का मत
भाष्यकार और टीकाकार के अनुसार जो श्रुतज्ञानी उपयोगवान् होता है तो वह पंचास्तिकाय रूप सभी द्रव्य, लोकालोक रूप सभी क्षेत्र, अतीतादि रूप सभी काल और औदारिक आदि सभी भावों को स्पष्ट रूप से यथार्थ जानता है, परन्तु सामान्यग्राही दर्शन से नहीं देखते हैं, क्योंकि जैसे मनःपर्यवज्ञान स्पष्टार्थ का ग्राहक होने से उसका दर्शन नहीं माना है, वैसे ही श्रुतज्ञान से भी स्पष्ट (विशेषरूप से) ज्ञान होता है, इसलिए उसका भी दर्शन नहीं होता है। नंदीसूत्र में जो द्रव्यादि की अपेक्षा से श्रुतज्ञान का विषय बताया है, उन द्रव्यादि की अपेक्षा से श्रुतज्ञानी जानता तो है, लेकिन देखता नहीं है। अर्थात् टीकाकार ने भाष्यकार के अनुसार नंदीसूत्र में 'जाणइ पासइ' के स्थान पर 'जाणइ न पासइ' (जानता है लेकिन देखता नहीं है) प्रयोग होना चाहिए, ऐसा कथन किया है।
भाष्यकार ने इस सम्बन्ध में मतान्तर देते हुए कहा कि कुछ आचार्य ऐसा मानते हैं कि श्रुतज्ञानी ज्ञान से जानते हैं, और अचक्षुदर्शन से देखते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञानी के मतिज्ञान अवश्य होता है और मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में चक्षु तथा अचक्षु यह दो दर्शन बताये हैं। मतिज्ञानी चक्षुदर्शन से और श्रुतज्ञानी अचक्षुदर्शन से देखते हैं। लेकिन ऐसा मानना अयोग्य है 145 क्योंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में इन्द्रिय मनोनिमित्त समान होने से अचक्षुदर्शन भी दोनों में समान है। तो फिर अचक्षुदर्शन से मतिज्ञानी क्यों नहीं देखता है अर्थात् दोनों अलग-अलग दर्शन से क्यों देखते हैं? इसलिए ऐसा कहना कदाग्रह है। वास्तव में तो यही सही है कि श्रुतज्ञानी जानते हैं लेकिन देखते नहीं है। 146 आगम का मत
प्रज्ञापना सूत्र पद 30 में पश्यत्ता का वर्णन है। वहाँ पश्यत्ता का अर्थ किया है - देखने का भाव। उपयोग के समान पश्यत्ता के भी दो भेद होते हैं - साकार और अनाकार। दोनों में अन्तर बताते हुए आचार्य अभयदेवसूरि कहते हैं कि यों तो पश्यत्ता एक उपयोग विशेष ही है, किन्तु उपयोग और पश्यत्ता में थोड़ा सा अन्तर है। जिस बोध (ज्ञान) में त्रैकालिक (दीर्घकालिक) अवबोध हो वह पश्यत्ता है तथा जिस बोध (ज्ञान) में वर्तमान कालिक बोध हो, वह उपयोग है। इस प्रकार उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर होने से पश्यत्ता को उपयोग से अलग बताया है। 441. भगवती सूत्र श. 8 उ.2
442. नंदीचूर्णि, पृ. 120 443. नंदीचूर्णि, पृ. 119
444. नंदीचूर्णि, पृ. 120 445. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 553 टीका
446. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 554 टीका