Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
View full book text
________________
चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
[291]
साकार पश्यत्ता के छह भेद-श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंग ज्ञान। अनाकार पश्यत्ता के तीन भेद - चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन। साकार पश्यत्ता के भेदों में मतिज्ञान और मति अज्ञान, इन दोनों को नहीं लिया है, क्योंकि आभिनिबोधिक ज्ञान उसे कहते हैं जो अवग्रहादि रूप हो, इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से उत्पन्न हो तथा वर्तमान कालिक वस्तु का ग्राहक हो। इस दृष्टि से मतिज्ञान और मत्यज्ञान दोनों में साकार पश्यत्ता नहीं है। जबकि श्रुतज्ञान आदि ज्ञान-अज्ञान अतीत और अनागत विषय के ग्राहक होने से साकार पश्यत्ता शब्द के वाच्य होते हैं। श्रुतज्ञान त्रिकाल विषयक होता है। अवधिज्ञान भी असंख्यात अतीत और अनागत कालिक उत्पसर्पिणियों-अवसर्पिणियों को जानने के कारण त्रिकाल विषयक है। मनः पर्यवज्ञान भी पल्योपम के असंख्यात भाग प्रमाण अतीत अनागत काल का परिच्छेदक होने से त्रिकाल विषयक है। केवलज्ञान की त्रिकालविषयता तो प्रसिद्ध ही है। श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान भी त्रिकाल विषयक होते हैं, क्योंकि ये दोनों यथायोग्य अतीत और अनागत भावों के परिच्छेदक होते हैं।
अनाकार पश्यत्ता में अचक्षुदर्शन का समावेश इसलिए नहीं किया गया है कि पश्यत्ता एक प्रकार का प्रकृष्ट ईक्षण (देखना) है, जो चक्षुरिन्द्रिय से ही संभव है तथा दूसरी इन्द्रियों से नहीं, क्योंकि अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग अल्पकालिक और द्रुततर होता है, यही पश्यत्ता की प्रकृष्टता में कारण है, अतः अनाकार पश्यत्ता का लक्षण है - जिसमें विशिष्ट परिस्फुट रूप देखा जाए। यह लक्षण चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में ही घटित हो सकता है। वस्तुतः प्राचीन व्याख्याकारों के अनुसार पश्यत्ता और उपयोग के भेदों में अन्तर ही इनकी व्याख्या को ध्वनित कर देते हैं।47 उपर्युक्त पश्यत्ता के वर्णन में श्रुतज्ञान को पश्यत्ता के रूप में ग्रहण किया गया है। इस अपेक्षा से श्रुतज्ञानी भी जानता और देखता है, वह श्रुतज्ञान के उपयोग से नहीं श्रुतज्ञान की पश्यत्ता से जानता और देखता है, ऐसा कह सकते हैं।448
आवश्यकचूर्णि में कहा है कि श्रुतज्ञानी अदृष्ट द्वीपसमुद्रों और देवकुरु-उत्तरकुरु के भवनों की आकृतियों (संस्थानों) का इस रूप में आलेखन करता है कि मानो उन्हें साक्षात् देखा हो। अतः श्रुत ज्ञानी जानता है, देखता है - यह आलापक विपरीत नहीं है। 49
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार 'पश्यति' का अर्थ चक्षु से देखना अथवा साक्षात्कार करना नहीं है। यहाँ 'पासइ' का प्रयोग पश्यत्ता के अर्थ में है। इसका तात्पर्य है, दीर्घकालिक उपयोग। श्रुतज्ञान का सम्बन्ध मन से है। मानसिक ज्ञान दीर्घकालिक अथवा त्रैकालिक होता है, इसलिए यहां 'पासइ' का प्रयोग संगत है। 50
मलधारी हेमचन्द्र ने कहा है कि कुछ स्थानों पर 'तेण सुए पासणाऽजुत्त' का श्रुतज्ञान पश्यत्ता से अयुक्त है, ऐसा अर्थ किया जाता है। इसी अपेक्षा से 'पासइ य केइ सो पुण तमचक्खुर्दसणेणं ति' गाथा 553 में इस पाठ से अचक्षुदर्शन की अपेक्षा से श्रुतज्ञान में पश्यत्ता कही है तो वह अयोग्य है। क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र में मतिज्ञान, मति अज्ञान और अचक्षुदर्शन को छोड़कर नौ प्रकार की पश्यत्ता कही है, उसमें श्रुतज्ञानी जानते हैं, लेकिन देखते नहीं है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए। (यह गाथा पूर्व टीकाकारों ने ग्रहण तो की, लेकिन कहीं पर भी उसकी व्याख्या नहीं की है। इसकी व्याख्या टीकाकार ने स्वबोध अर्थ से की है, किन्तु आगम से जो अर्थ अविरोधी हो उसका ग्रहण किया जा सकता है।51 447. युवाचार्य मधुकरमुनि, प्रज्ञापनासूत्र, भाग 3, पद 30, पृ. 163 448. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 554 बृहद्वृत्ति 449. आवश्यक चूर्णि, भाग 1, पृ. 35-36
450. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र, पृ. 189 451. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 555 बृहद्वृत्ति