Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay
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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
5. ज्ञानप्रवाद पूर्व - (अ) इसमें मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानों का, उपलक्षण से तीन अज्ञानों का एवं चार दर्शनों का स्वामी, भेद, विषय तथा चूलिकादि द्वारों से विस्तार से कथन था। (ब) दिगम्बर परम्परा में भी ऐसा ही उल्लेख है।
6. सत्यप्रवाद पूर्व (अ) सत्यभाषा आदि चार भाषाओं का या सतरह प्रकार के संयम और असंयम का स्वरूप भेद, उदाहरण कल्प अकल्प आदि से विस्तार से कथन था। (ब) जहाँ पर वचनों की गुप्ति, वचनों के संस्कार के कारण, वचनों के प्रयोग, बारह प्रकार की भाषा, उनके बोलने वाले, अनेक प्रकार के असत्यों का उल्लेख और दश प्रकार के सत्यों का स्वरूप वर्णन हो वह सत्यप्रवाद है। इन सभी का राजवार्तिक, धवला और गोम्मटसार में विस्तार से वर्णन है।
7. आत्मप्रवाद पूर्व (अ) द्रव्य आत्मा आदि आठ आत्माओं का स्वरूप भेद, स्वामी, नियमा, भजना आदि से विस्तार से कथन था। (ब) अकलंक के अनुसार आत्मा के अस्तित्वनास्तित्व नित्यत्व-अनित्यत्व कर्तृत्व भोक्तृत्व आदि गुणों का युक्तिपूर्वक वर्णन हो और षट् जीव निकाय के भेदों का भी युक्तिपूर्वक वर्णन हो वह आत्मप्रवाद पूर्व है। गोम्मटसार के अनुसार इसमें निश्चयनय और व्यवहार नय से आत्मा का विस्तार से वर्णन हुआ है।
8. कर्मप्रवाद पूर्व - दोनों परम्पराओं के अनुसार इसमें ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, उत्तर प्रकृतियाँ, अबाधाकाल, संक्रमण आदि का विस्तार से कथन था।
9. प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व (अ) मूलगुण प्रत्याख्यान, उत्तरगुण प्रत्याख्यान, सर्वफल, देशफल आदि का विस्तार से कथन था। (ब) जिस पूर्व में व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, प्रतिमा, विराधना, आराधना विशुद्धि का क्रम मुनि लिंग का कारण परिमित और अपरिमित द्रव्य और भावों का प्रत्याख्यान त्याग का वर्णन किया गया है, वह प्रत्याख्याखन पूर्व है।
10. विद्यानुप्रवाद पूर्व (अ) अनेक अतिशय संपन्न विद्याओं की साधना प्रयोग, आराधनाविराधना आदि का विस्तार से कथन था। (ब) जिसमें समस्त प्रकार की विद्या, आठ महानिमित्त उनका विषय राजू और राशि की विधि क्षेत्र श्रेणी लोक का आधार संस्थान-आकार और समुद्घात का निरूपण हो वह विद्यानुवाद पूर्व है। अकलंक ने विद्या, लोक, समुद्घात आदि का विस्तार से वर्णन किया है।
11. अवन्ध्य पूर्व (अ) इसमें ज्ञान, तप, संयम आदि सुकृत तथा प्रमाद, कषाय आदि दुष्कृत, नियम से शुभ-अशुभ फल देते हैं, कभी विफल नहीं होते, इसका विस्तार से कथन था। (ब) सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागण के संचार, उपपाद गति और विपरीत फलों का जहाँ पर वर्णन है, शकुनों का निरूपण है और अहँत बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि के गर्भ जन्म तप आदि महा कल्याणों का पर वर्णन है, वह कल्याणनामधेय पूर्व है।
12. प्राणायु पूर्व (अ) इसमें श्रोत्रबल प्राण आदि प्राणों का तथा नरकायु आदि आयुओं का विस्तार से कथन था। (ब) जिस पूर्व में कायचिकित्सादि अष्टांग आयुर्वेद, पृथ्वी, जल आदि भूतों का कार्य सर्प आदि जंगम जीवों के गति आदि का वर्णन और श्वासोच्छ्वास का विभाग विस्तार से वर्णित है, वह प्राणावाय पूर्व है।
13. क्रियाविशाल पूर्व (अ) तेरह क्रिया, पच्चीस क्रिया, छेद क्रिया आदि का विस्तार से कथन था। (ब) जिसमें 72 प्रकार की लेखन आदि कला, 64 प्रकार के स्त्रियों के गुण, शिल्प, काव्य के गुण दोष, छन्दों की रचना एवं क्रिया तथा उन क्रियाओं के फलों के उपयोग करने वालों का निरूपण है, वह क्रियाविशाल पूर्व है।
14. लोकबिन्दुसार पूर्व (अ) इसमें सर्वाक्षर सन्निपात लब्धि उत्पन्न हो, ऐसा सर्वोत्तम ज्ञान था। (ब) जिसमें आठ प्रकार के व्यवहार, चार प्रकार के बीज, परिकर्मराशि का विभाग और समस्त श्रुत की संपत्ति का निरूपण है, वह लोकबिन्दुसार है।